राजकीय ऋण

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राजकीय ऋण (साँचा:lang-en) (जो लोक ऋण, राष्ट्रीय ऋण और संप्रभु ऋण के रूप में भी जाना जाता हैं)[१][२] वह ऋण हैं जो किसी केंद्र सरकार द्वारा बकाया हैं। संघीय राज्यों में, राजकीय ऋण का सन्दर्भ किसी राज्य अथवा प्रान्त, या नगरपालिका या स्थानीय सरकार के ऋण से भी हो सकता हैं। इसके विपरीत, वार्षिक राजकीय घाटे का सन्दर्भ किसी एक वर्ष के सरकारी आय और व्यव के अंतर से होता हैं।

वर्तमान समय में सरकार के आर्थिक और विकास सम्बन्धी कार्य पहले से काफी अधिक हो गये है। इन कार्यों में वृद्धि होने के कारण सार्वजनिक व्यय में भी काफी अधिक वृद्धि हुई है। इसके लिए सरकार को कई साधनों से धन प्राप्त करना अर्थात् ऋण लेना पड़ता है।सरकार द्वारा लिये गये इस ऋण को ही सार्वजनिक ऋण (public debt) कहा जाता है।

विश्व के सकल सार्वजनिक ऋण के 0.5% से अधिक के सार्वजनिक ऋणों की सूची (२०१२ ; CIA World Factbook 2013)[३]
देश सार्वजनिक ऋण
(बिलियन USD)
GDP का % प्रति व्यक्ति (USD) विश्व के सार्वजनिक ऋण का %
World 56,308 64% 7,936 100.00%
साँचा:flag* 17,607 73.60% 55,630 31.27%
साँचा:flag 9,872 214.30% 77,577 17.53%
साँचा:flag 3,894 31.70% 2,885 6.91%
साँचा:flag 2,592 81.70% 31,945 4.60%
साँचा:flag 2,334 126.10% 37,956 4.14%
साँचा:flag 2,105 89.90% 31,915 3.74%
साँचा:flag 2,064 88.70% 32,553 3.67%
साँचा:flag 1,324 54.90% 6,588 2.35%
साँचा:flag 1,228 85.30% 25,931 2.18%
साँचा:flag 1,206 84.10% 34,902 2.14%
साँचा:flag 995 51.90% 830 1.75%
साँचा:flag 629 35.40% 5,416 1.12%
साँचा:flag 535 33.70% 10,919 0.95%
साँचा:flag 489 40.40% 6,060 0.87%
साँचा:flag 488 68.70% 29,060 0.87%
साँचा:flag 479 85% 5,610 0.85%
साँचा:flag 436 161.30% 40,486 0.77%
साँचा:flag 434 53.80% 11,298 0.77%
साँचा:flag 396 99.60% 37,948 0.70%
साँचा:flag 370 111.40% 67,843 0.66%
साँचा:flag 323 36% 13,860 0.57%
साँचा:flag 323 41.60% 7,571 0.57%
साँचा:flag 311 24.80% 1,240 0.55%
साँचा:flag 308 12.20% 2,159 0.55%
साँचा:flag 297 119.70% 27,531 0.53%
साँचा:flag 292 43.30% 4,330 0.52%
साँचा:flag 283 50.40% 1,462 0.50%

सार्वजनिक ऋण का वर्गीकरण

सार्वजनिक ऋण के स्रोतों को या वर्गीकरण को निम्नलिखित आधारों पर बांटा जा सकता हैः

समय के अनुसार

प्रत्येक ऋण एक निश्चित समय के लिये लिया जाता है। समय के अनुसार सार्वजनिक ऋणों का उल्लेख निम्न प्रकार से किया जा सकता हैः

1. अल्पकालीन ऋणः जो ऋण सरकार एक वर्ष तक की अवधि के लिये लेती है उन्हें अल्पकालीन ऋण कहते है।

2. दीर्घकालीन ऋणः ये ऋण दस वर्ष से अधिक समय के लिये जाते है।

3. कोषित ऋणः जब किसी ऋण की मूल रकम लौटाने के लिये सरकार बाध्य नहीं होती तो उसे कोषित ऋण कहते है।

4. अकोषित ऋणः अकोषित ऋण वे ऋण हैं जिनके मूलधन तथा ब्याज का भुगतान एक निश्चित तिथि तक करने के लिये सरकार वचनबद्ध होती है।

प्रयोग के अनुसार

प्रयोग के अनुसार सार्वजनिक ऋणों का उल्लेख निम्न प्रकार से किया जा सकता हैः

1. उत्पादक ऋणः उत्पादक ऋण वे ऋण होते है जिन्हें उत्पाद कार्यों में लगाया जाता है।

2. अनुत्पादक ऋणःअनुत्पादक ऋण वे ऋण होते है जिनके व्यय से न तो आय प्राप्त होती है और न उत्पादन क्षमता में वृद्धि होती है।

प्रकृति के अनुसार

सार्वजनिक ऋणों का प्रकृति के अनुसार उल्लेख निम्न प्रकार से किया जा सकता हैः

1. ऐच्छिक ऋणः ये ऋण जनता अपनी इच्छानुसार सरकार को प्रदान करती है। सरकार ऋण की शर्तों के अनुसार इनका ब्याज सहित भुगतान कर देती है।

2. अनैच्छिक ऋणः युद्ध अथवा संकट की अवस्था में सरकार लोगों को ऋण देने के लिये मजबूर कर सकती है। इन ऋणों को लोग अपनी इच्छा से नहीं देते, इसलिये ये ऋण अनैच्छिक ऋण कहलाते है।

ऋण की प्राप्ति के अनुसार

ऋण की प्राप्ति के अनुसार सार्वजनिक ऋणों का उल्लेख निम्न प्रकार से किया जा सकता हैः

1. आन्तरिक ऋणः आन्तरिक ऋण वे ऋण हैं जो किसी देश के अन्दर उस देश की जनता अथवा बैंक आदि वित्तीय संस्थाओं से प्राप्त किये जा सकते है।

2. विदेशी ऋणः विदेशी तथा अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं से जो ऋण प्राप्त किये जाते है उन्हें विदेशी ऋण कहते है।

सार्वजनिक ऋण के प्रभाव

जिस प्रकार सार्वजनिक व्यय तथा करारोपण के आर्थिक प्रभाव होते हैं, उसी प्रकार सार्वजनिक ऋण के प्रभाव भी उपभोग, उत्पादन, वितरण तथा आर्थिक व्यवस्था पर पड़ते हैं। ये प्रभाव ऋण के आकार, अवधि, प्रकार व शर्तों पर निर्भर करते हैं। आसानी से प्राप्त होने वाले या सुलभ ऋण (Soft Loans) के प्रभाव कठोर ऋण (Hard Loans) की अपेक्षा अवश्य ही गंभीर होंगे। इसी प्रकार बाह्य ऋण के प्रभाव, आंतरिक ऋण की अपेक्षा गंभीर हो सकते हैं। इसलिए सार्वजनिक ऋण देश की अर्थव्यवस्था को दो प्रकार से प्रभावित करते हैंः (१) ऋण लेते समय व (२) ऋण का उपभोग करते समय। सरकार जब ऋण प्राप्त करती है तो इसका प्रभाव प्रायः करारोपण जैसा या आय सम्बन्धी होता है। सरकार जब ऋण से प्राप्त राशि को व्यय करती है तो इसका प्रभाव सार्वजनिक व्यय के समान होता है। इसके प्रभावों की व्याख्या विस्तारपूर्वक निम्न प्रकार से की जाती सकती हैः

उपभोग पर प्रभाव

ऋण का प्रभाव उपभोक्ताओं पर दो प्रकार से अध्ययन किया जाता है। पहला ऋण प्रतिभूतियों को अपनी संपत्ति व धनराशि से खरीदते हैं अथवा वर्तमान आय से। यदि वर्तमान आय से ऋण प्रतिभूतियां क्रय की जाती है तो अवश्य ही उनकी व्यय नीति तथा कार्य कुशलता पर प्रभाव पड़ेगा। दूसरा ऋण की प्रवृति का प्रभाव। ऋण यदि अनुत्पादक है तो उसका भार भी अधिक सहना पड़ेगा। किंतु उत्पादक ऋण लाभदायक हो सकते हैं। इससे कार्यकुशलता व जीवन स्तर में वृद्धि हो सकती है।

उत्पादन पर प्रभाव

अनुत्पादक ऋण का उत्पादन पर कोई लाभदायक प्रभाव नहीं पड़ता, जबकि लाभदायक ऋण का अभिष्ट प्रभाव पड़ता है। सार्वजनिक ऋण की सहायता सेआयोजित ढंग सेपिछड़ी हुई अर्थव्यवस्था को विकसित करके राष्ट्रीय लाभांश, रोजगार, आर्थिक विकास और जीवन स्तर में वृद्धि की जा सकती है। इस सम्बन्ध में विचारणीय प्रश्न यह है कि इस प्रकार सार्वजनिक ऋण में वृद्धि होने का निजी क्षेत्र पर क्या प्रभाव पड़ेगा। प्रायः यह क्षेत्र हतोत्साहित होता है और इससे कुल उत्पादन पर हानिकारक प्रभाव पड़ता है। वास्तव में उत्पादन पर सार्वजनिक ऋण के प्रभाव उसकी औद्योगिक, मौद्रिक और राजकोषीय नीति पर निर्भर करते हैं। नीतियां अनुकूल होने पर प्रभाव भी अनुकूल होते हैं और नीतियां प्रतिकूल होने पर प्रभाव भी प्रतिकूल होते हैं।

वितरण पर प्रभाव

धन के वितरण में सार्वजनिक ऋणों का महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है। यदि ऋण केवल धनी व्यक्तियों से लिया जाता है और धनी व्यक्तियों से प्राप्त धन को केवल गरीबों के लाभ के लिए व्यय किया जाता है तो देश में धन की असमानता कम होगी। यदि स्थिति इसके विपरीत है तो धन की असमानता बढ़ेंगी। यदि ऋण छोटे-छोटे मूल्यों के हैं। जिन्हें कम आय वाले व्यक्ति भी खरीद सकते हैं, तो ब्याज का भुगतान समाज के निर्धन वर्ग के व्यक्ति को होगा। परंतु ऐसे ऋण पत्रों की संख्या कुल ऋण पत्रों की अपेक्षा बहुत कम होती है। इसलिए आय की असमानता में प्राय वृद्धि हो जाती है। सार्वजनिक ऋण के कारण एक ऐसे वर्ग का जन्म होता है जो अपना भरण पोषण ऋण पत्रों से प्राप्त होने वाले ब्याज से ही करता है। उससे भी धन की असमानता में वृद्धि होती है।

निवेश पर प्रभाव

साधारणतः सार्वजनिक ऋणों का निवेश पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। पीगू और रिकार्डों का मानना है कि सार्वजनिक ऋण देते समय लोगों को निवेश में आर्थिक कमी व उपभोग में कमी करनी पड़ती है। निवेश में अधिक कमी से भविष्य में उत्पादन कम होगा और ऋण का वास्तविक भार भावी पीढ़ी पर पड़ेगा, क्योंकि भविष्य में उन्हीं के द्वारा सार्वजनिक ऋणों को भुगतान किया जाएगा। परिणामस्वरूप निजी क्षेत्र के निवेश में कमी होगी क्योंकि इससे निजी क्षेत्रों के लिए निवेश महंगा हो जाता है इस कारण निवेश पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।

रोजगार पर प्रभाव

व्यापारिक मंदी में जब व्यापार अनिश्चित हो जाता है तो मूल्य, उत्पादन, उपभोग स्तर गिर जाता है, बेकारी बढ़ जाती है तथा साख संस्थाओं की स्थिति बिगड़ जाती है। तो सरकार अपनी प्रतिभूतियों के आधार पर केंद्रीय बैंक से उधार लेकर कार्यक्रमों पर व्यय करती है। जैसे रेलों, नहरों, सड़कों और नये कारखानों आदि जिससे रोजगार की मात्रा बढ़े। इस प्रकार व्यक्तियों के पास धन पहुंचने से आय व क्रय शक्ति बढ़ती है। मूल्यों में वृद्धि होने लगती है और ब्याज की शिथिलता दूर हो जाती है।

आर्थिक स्थिरता पर प्रभाव

सार्वजनिक ऋणों का विशेष प्रभाव देश में आर्थिक क्रियाओं को सही निर्देश देने का होता है। प्रो. लर्नर का मतहै कि ऋणों के इस प्रकार धन के आदान-प्रदान द्वारा देश में मुद्रा स्फीति, मुद्रा, संकुचन, रोजगार स्थिति और पूंजी निर्माण आदि की दशाओं में निश्चय ही नियमन कार्य करना चाहिए, जहां तक ऋण द्वारा धन प्राप्ति का प्रश्न है उनका मत है कि यह उद्देश्य तो अधिक पत्र-मुद्रा छाप कर भी पूरा किया जा सकता है, किंतु विभिन्न आर्थिक परिस्थितियों के निर्देशन में ऋण प्रभावित अस्त्र सिद्ध होते हैं।

उत्पादन लागत पर प्रभाव

यदि सरकार उधार लिए हुए धन का उपयोग उत्पादकों को समुचित दरों पर माल प्रदान करने में तथा परिवहन व प्रशिक्षण की सुविधा मुहैया करवाने में करती है तथा यदि सरकार धन का उपयोग अनुसंधान करने में तथा निजी उधमों को सुविधा देने में करती है। तो ये सब ऐसे उदाहरण है, जिससे उत्पादन लागत में कमी होती है। किंतु एक विचारशील बात यह है कि जब उधार लिए हुए धन का उपयोग किया जाता है तो श्रम व पूंजी की मांग उत्पन्न होती है। यदि श्रमिक की कमी होती है तो मजदूरियां बढ़ जाती है। फलस्वरूप लागत भी बढ़ जाती है तो इसका निजी उद्योग पर प्रतिकूल प्रभाव भी पड़ सकता है।

सार्वजनिक ऋण का भुगतान

जहां तक सार्वजनिक ऋणों के भुगतान का प्रश्न है तो सरकार को ऋण अवश्य ही लौटाने चाहिए यदि सरकार सही समयपर ऋणों की वापसी व अदायगी करती है तो सरकार दिवालियापन से बच सकती है, फिजूल खर्ची में कमी होगी, प्रबंध लागत में भी कमी होगी तथा सरकार का भविष्य में ऋण लेना भी आसान होगा। अब प्रश्न यह उठता है कि भुगतान कैसे किया जाए। इस संबंध में प्रायः विभिन्न निम्नलिखित पद्धतियों अपनाई जाती हैः

ऋण निषेध या नकारना

कई राज्यों में अपने ऋणों के भुगतान को इन्कार करके ऋण भार से मुक्त होने को प्रवृति पाई जाती है। परंतु यह नीति व्यावहारिक नहीं है। केवल क्रांति द्वारा स्थापित सरकार ही इस विधि को अपना सकती है। यद्यपि यह भी सरलता से संभव नहीं है। क्योंकि इससे सरकार की साख गिर जाती है तथा लोग सरकार का विरोध करने लगते हैं। यदि ऋण विदेशी सरकार अथवा किसी अंतर्राष्ट्रीय संस्था से लिया है तो सरकार के न केवल विदेशी सत्ता से सम्बन्ध ही बिगड़ जाएंगे, बल्कि युद्ध की स्थिति भी उत्पन्न हो सकती है।

ऋण परिशोध की स्थापना

ऋणों की अदायगी ऋण परिशोधन कोष की स्थापना द्वारा की जा सकती है। जब सरकार को किसी भारी ऋण की अदायगी करनी होती है, तो प्रायः वह ऐसे कोष की स्थापना करती है, इसमें धन आने के दो तरीके हैंः- इस पद्धति के अनुसार एक कोष में सरकारी आय का एक निश्चित भाग प्रतिवर्ष डाला जाता है तथा इस राशि को किसी स्थान पर लगा दिया जाता है। अगले वर्ष उस वर्ष का मूलधन तथा पिछले वर्ष का मूलधन तथा ब्याज फिर किसी स्थान पर लगा दिया जाता है। यह क्रम तब तक चलता रहता है जब कि मूलधन और ब्याज मिलाकर ऋण की अवधि समाप्त होने तक ऋण की कुल मात्रा के बराबर ना हो जाए। लेकिन आजकल स्थिति इसके विपरीत है, आजकल न तो कोषों में धन एकत्रित किया जाता है और ना ही धन को एक वर्ष से दूसरे वर्ष में लिया जाता है। इसके विपरीत यह है कि प्रत्येक वर्ष कुछ निश्चित राशि अलग से रख दी जाती है और इसी वर्ष ऋण के एक भाग का भुगतान कर दिया जाता है। यह राशि प्रायः पूर्व निश्चित होती है।

ऋण स्थानातंरण या परिवर्तन

ऋण स्थानान्तरण अथवा ऋण परिवर्तन को परिभाषित इस प्रकार किया जा सकता है कि ‘ब्याज की दरों में आई हुई कमी का लाभ उठाकर अपने ब्याज के भार को कम करने के उद्देश्य से चालू ऋणों को नए ऋणों में परिवर्तित करने को ऋण स्थानांतरण कहते है।’ इस विधि में सरकार वास्तव में पुराने ऋणों का भुगतान नहीं करती, बल्कि एक प्रकार से उनका रूप बदल देती है। जब सरकार को संकटकालीन स्थिति का सामना करना पड़ता है तो वह बड़ी मात्रा में ऊंची ब्याज दर पर ही ऋण लेती है, परंतु शान्तिकाल में जब कम ब्याज दर पर ऋण मिलने लगता है तो सरकार ऋणदाताओं से कहती है कि वे पुराने ऋण पत्रों को नए ऋण पत्रों में परिवर्तित कर सकते हैं यदि ऋणदाता इस शर्त पर तैयार नहीं होते तो सरकार नए सस्ते ब्याज दर पर ऋण प्राप्त कर पुराने ऋणों का भुगतान कर देती है।

वार्षिक ऋण भुगतान किश्तें या मियादी किश्तें

जब सरकार पर ऋण का भार अधिक हो जाता है तो वह उसका भुगतान एकदम नहीं कर सकती, क्योंकि ऐसा करने के लिए आय का व्यय से अधिक होना आवश्यक होता है। अतः ऋण का भुगतान सरकार वार्षिक किश्तों में करना शुरू कर देती है। यह नीति प्रायः स्थाई अथवा दीर्घकालीन ऋणों के संबंध में अपनाई जाती है। इसके अंतर्गत सरकार ब्याज सहित मूलधन की एक निश्चित मात्रा लोटाती रहती है। इससे धीरे-धीरे सरकार पर ऋण का भार कम होता जाता

बजट की बचत

प्राचीन काल में ऋण वापसी का सबसे सरल ढंग यह माना जाता था कि सरकार अपनी बचत राशि में से ऋणों का भुगतान करें। लेकिन आधुनिक काल में भुगतान का यह तरीका उचित नहीं माना जाता है, क्योंकि सरकारी खर्चों में तेजी से वृद्धि हो रही है व बचत के बजट बहुत कम प्राप्त हो पाते हैं।

विशेष पूंजीकर

ऋण के भुगतान के लिए सरकार पूंजीकर भी लागू कर सकती है। रिकार्डों का मत था कि ऋणी राष्ट्र को ऋण से शीघ्र अति शीघ्र मुक्त हो जाना चाहिए फिर चाहे उसे अपनी संपत्ति के एक भाग का बलिदान ही क्यों ना करना पड़े। इसलिए उसने ऋण के भुगतान के लिए पूंजीकर का समर्थन किया है। यह एक निश्चित मूल्य से अधिक की पूंजी परिसंपतियों पर केवल एक बार लगाया जाने वाला कर है। पूंजी कर को युद्ध केएकदम बाद में लगाने की वकालत की जाती है ताकि युद्धकालीन अनुत्पादक ऋणों का भुगतान किया जा सके। यह कर अति प्रगतिशील होता है। परंतु न्याय की दृष्टि से यह अन्यायपूर्ण व असंगत होता है।

ऋण वापसी

यदिसरकार अपने चालू ऋणों की अदायगी के लिए नये बांड जारी करती है तो उसे ऋण वापसी कहते हैं। ऋण वापसी उस प्रक्रिया का नाम है। जिसके द्वारा परिपक्व होने वाले बांडों के स्थान पर नये बांड बदल दिए जाते हैं। कभी-कभी ऋण पूर्ण होने की तिथि से पूर्व ही ऋण की अदायगी कर दी जाती है। ऐसा तब होता है जब ब्याज की चालू दर कम होती है अथवा जब सरकार परिपक्व ऋणों की तिथि बदलना चाहती है।

सन्दर्भ