यशोधरा (काव्य)

मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से
(यशोधारा(काव्य) से अनुप्रेषित)
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

साँचा:for मैथिलीशरण गुप्त द्वारा रचित प्रसिद्ध प्रबंध काव्य है जिसका प्रकाशन सन् 1933 ई. में हुआ। अपने छोटे भाई सियारामशरण गुप्त के अनुरोध करने पर मैथिलीशरण गुप्त ने यह पुस्तक लिखी थी। यशोधरा महाकाव्य में गौतम बुद्ध के गृह त्याग की कहानी को केन्द्र में रखकर यह महाकाव्य लिखा गया है। इसमें गौतम बुद्ध की पत्नी यशोधरा की विरहजन्य पीड़ा को विशेष रूप से महत्त्व दिया गया है। यह गद्य-पद्य मिश्रित विधा है जिसे चम्पूकाव्य कहा जाता है।

उद्देश्य

यशोधरा का उद्देश्य है पति-परित्यक्तों यशोधरा के हार्दिक दु:ख की व्यंजना तथा वैष्णव सिद्धांतों की स्थापना। अमिताभ की आभा से चकित भक्तों को अदृश्य यशोधरा की पीड़ा का, मानवीय सम्बंधों के अमर गायक, मानव-सुलभ सहानुभूति के प्रतिष्ठापक मैथिलीशरण गुप्त की अंत:प्रवेशिनी दृष्टि ने ही सर्वप्रथम साक्षात्कार किया। साथ ही 'यशोधरा' के माध्यम से सन्यास पर गृहस्थ प्रधान वैष्णव धर्म की गौरव प्रतिष्ठा की है।

== कथानक ==कथारम्भ गौतम के वैराग्य चिंतन से होता है। जरा, रोग, मृत्यु आदि के दृश्यों से वे भयभीत हो उठते हैं। अमृत तत्व की खोज के लिए गौतम पत्नी और पुत्र को सोते हुए छोड़कर 'महाभिनिष्क्रमण' करते हैं। यशोधरा का निरवधि विरह अत्यंत कारुणिक है। विरह की दारुणता से भी अधिक उसको खलता है प्रिय का "चोरी-चोरी जाना"। इसर समझती है परंतु उसे मरण का भी अधिकार नहीं है, क्योंकि उस पर राहुल के पालन-पोषण का दायित्व है। फलत: "आँचल में दूध" और "आँखों में पानी" लिए वह जीवनयापन करती है। सिद्धि प्राप्त होने पर बुद्ध लौटते हैं, सब लोग उनका स्वागत करते हैं परंतु मानिनी यशोधरा अपने कक्ष में रहती हैं। अंतत: स्वयं भगवान उसके द्वार पहुँचते हैं और भीख माँगते हैं। यशोधरा उन्हें अपनी अमूल्य निधि राहुल को दे देती है तथा स्वयं भी उनका अनुसरण करती है। इस कथा का पूर्वार्द्ध एवं इतिहास प्रसिद्ध है पर उत्तरार्द्ध कवि की अपनी उर्वर कल्पना की सृष्टि है।

भाषा शैली

'यशोधरा' का प्रमुख रस शृंगार है, शृंगार में भी केवल विप्रलम्भ। संयोग का तो एकांताभाव है। शृंगार के अतिरिक्त इसमें करुण, शांत एवं वात्सल्य भी यथास्थान उपलब्ध हैं। प्रस्तुत काव्य में छायावादी शिल्प का आभास है। उक्ति को अद्भुत कौशल से चमत्कृत एवं सप्रभाव बनाया गया है। यशोधरा की भाषा शुद्ध खड़ीबोली है- प्रौढ़ता, कांतिमयता और गीतिकाव्य के उपयुक्त मृदुलता और मसृणता उसके विशेष गुण हैं, इस प्रकार यशोधरा एक उत्कृष्ट रचना सिद्ध होती है।

प्रबंध काव्य

केवल शिल्प की दृष्टि से तो वह 'साकेत' से भी सुंदर है। काव्य-रूप की दृष्टि से भी 'यशोधरा' गुप्त जी के प्रबंध-कौशल का परिचायक है। यह प्रबंध-काव्य है- लेकिन समाख्यानात्मक नहीं। चरित्रोद्घाटन पर कवि की दृष्टि केंद्रित रहने के कारण यह नाटय-प्रबंध है, और एक भावनामयी नारी का चरित्रोद्घाटन होने से इसमें प्रगीतात्मकता का प्राधान्य है। अत: 'यशोधरा' को प्रगीतात्मकता नाट्य प्रबंध कहना चाहिए, जो एक सर्वथा परम्परामुक्त काव्य रूप है।

यशोधरा : एक आदर्श नारी

यशोधरा का विरह अत्यंत दारुण है और सिद्धि मार्ग की बाधा समझी जाने का कारण तो उसके आत्मगौरव को बड़ी ठेस लगती है। परंतु वह नारीत्व को किसी भी अंश में हीन मानने को प्रस्तुत नहीं है। वह भारतीय पत्नी है, उसका अर्धांगी-भाव सर्वत्र मुखर है- "उसमें मेरा भी कुछ होगा जो कुछ तुम पाओगे।" सब मिलाकर यशोधरा आदर्श पत्नी, श्रेष्ठ माता और आत्मगौरव सम्पन्न नारी है। परंतु गुप्त जी ने यथासम्भव गौतम के परम्परागत उदात्त चरित्र की रक्षा की है। यद्यपि कवि ने उनके विश्वासों एवं सिद्धान्तों को अमान्य ठहराया है तथापि उनके चिरप्रसिद्ध रूप की रक्षा के लिए अंत में 'यशोधरा' और 'राहुल' को उनका अनुगामी बना दिया है। प्रस्तुत काव्य में वस्तु के संघटक और विकास में राहुल का समधिक महत्त्व है। यदि राहुल सा लाल गोद में न होता तो कदाचित यशोधरा मरण का ही वरण कर लेती और तब इस 'यशोधरा' का प्रणयन ही क्यों होता। 'यशोधरा' काव्य में राहुल का मनोविकास अंकित है। उसकी बालसुलभ चेष्टाओं में अद्भुत आकर्षण है। समय के साथ-साथ उसकी बुद्धि का विकास भी होता है, जो उसकी उक्तियों से स्पष्ट है। परंतु यह सब एकदम स्वाभाविक नहीं कहा जा सकता। कहीं कहीं तो राहुल प्रौंढों के समान तर्क, युक्तिपूर्वक वार्तालाप करता है, जो जन्मजात प्रतिभासम्पन्न बालक के प्रसंग में भी निश्चय ही अतिरंजना है।


यशोधरा एक चरित्र प्रधान काव्य है। इस ग्रन्थ की रचना का उद्देश्य ही उपेक्षिता यशोधरा के चरित्र को उभारना है। काव्य के नामकरण से ही सिद्ध हो जाता है कि यशोधरा ही इस काव्य की प्रमुख पात्र है। उसी की करुण गाथा को गूंथने के उद्देश्य से गुप्तजी ने इस काव्य की रचना की है। इन पंक्तियों से इस बात का ज्ञात हो जाता है-

अबला जीवन हाय! तुम्हारी येही कहानी--
आँचल में है दूध और आँखों में पानी!

विरहिणी

यशोधरा के विरहिणी रूप पर भी कवि ने ज्यादा प्रकाश डाला है। विरहिणी गोपा रात-दिन आँसू बहाती है। उसे जान पड़ता है कि उसका जन्म केवल रोने के लिए हुआ है। उस अबला जीवन की आँखों में सदैव पानी भरा रहता है और इसीलिए वह अपने पति को नयन-नीर ही देती है।

राहुल के सामने रोने से राहुल को कष्ट होता है, इसीलिए वह उसके सो जाने के बाद ही जी भरकर क्रन्दन करती है। इस प्रकार वह रोते-रोते रात काटती है। उसके नेत्रों से नींद सदा के लिए विदा हो गई है।

गौतम बुद्ध के चले जाने पर यशोधरा अपने पूर्वाराग को स्मरण करती हुई कहती है--

प्रियतम ! तुम श्रुति पथ से आए।
तुम्हें ह्रदय में रखकर मैं ने अधर-कपाट लगाए।'

उन्माद की स्थिति में यशोधरा 'जाओ मेरे सिर के बाल' कहकर अपने एडीचम्बी सुन्दर केशों को काट डालती है और राहुल को अपने बाहुपाश मैं इतने जोर से जकड लेती है कि उसका दम घुटने लगता है।

वास्तव में, वियोग का दुख जब अग्राह्य हो जाता है-- "मैं उठ धाऊँ।" वह अपने वनमाली को बुलाती है- वह भी जल्दी क्योंकि उसे भय है कि कहीं 'आँखों का पंछी' उनके आने से पूर्व ही न उड जाय, किन्तु गोपा को तुरन्त ही बोध होता है कि स्नेह तो जलने के लिए बना है और यह देह सब कुछ सहने के लिए बनी है।

यशोधरा के आँसू इतने मूल्यवान है कि शुद्धोधन उन्हें लेकर 'मुक्ति मुक्ता' तक छोडने को तैयार है। विरहिणी यशोधरा व्रत रखती है, फटे-पुराने वस्त्र पहनती है। इस प्रकार राजभोग से वंचित यशोधरा केवल गौतम की चिन्ता में जी रही है।

'न जाने कितनी बरसातें बीत गई' पर गोपा के दिन नहीं फिरे। वह ऊष्मा-सी ठंडी साँसें भरती दुःख से सुख का मूल्य आँकती है। उसे विश्वास है कि उसके खलने वाले दिन अवश्य कट जायेंगे और खेलने वाले दिन अवश्य आयेंगे और तब वह एक दिन प्रभु का दर्शन अवश्य कर पायेंगे। इसीलिए वह कभी-कभी अपने नयन को व्यर्थ व्याकुल होने से मना करती है क्योंकि उसे ऐसा लगता है कि इस रोने में भी कुछ नहीं रखा है।

अनुरागिनी

अनुरागिनी के रूप मेम यशोधरा का चरित्र निखर उठा है। उसके चरित्र की विशेषता यह है कि वह अनुरागिनी होते हुए भी मानिनी है। वह अपने पति से जितना अनुराग रखती है उतना भी मान रखती है। वास्तव में वह मीरा की भाँति अपने पति-परमेश्वर की उपासिका है। वैष्णव-भक्ति में मान, दर्प, उपालम्भ आदि को महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है। यशोधरा का भी कथन है--

भक्त नहीं जाते कहीं, आते हैं भगवान ;
यशोधरा के अर्थ है, अब भी अभिमान।
इसी निज राजभवन में।

जननी

यशोधरा का जननी रूप उसके अनुरागिणी रूप से भी अधिक मुखरित है। पति से वियुक्त नारी का एकमात्र संबल उसका पुत्र होता है। यशोधरा की 'मलिन गूदडी का लाल' , 'उसके शरीर का अंराग' , 'आँखों का अंजन' , 'विपक्ति का सहारा' , 'जीवन-नैया का खिवैया' , 'दुखिनी का सुख' , 'उसका भैया' , 'उसका राजा' सभी कुछ राहुल है। यदि गौतम ने उसके इस अवलम्ब को भी छिन लिया है तो वह भी श्री गोविन्दवल्लभ पन्त के नाटक 'वरमाला' की नायिका वैशालिनी की तरह दर-दर जंगलों की खाक छानती फिरती। इसके अतिरिक्त उसे सास-ससुर की संवेदना और सहानुभूति प्राप्त न होती, तो वह कभी की काल के गाल में समा गई होती। यशोधरा इस लिए जीती है कि राहुल का भार उसके ऊपर है तथा सास-ससुर की सहानुभूति उसके साथ है।

मानिनी

यशोधरा काव्य में जिस प्रकार यशोधरा का जननी रूप निखरा है उसी प्रकार उसका मानिनी रूप भी। जब भगवान बुद्ध ग्यान प्राप्त करके मगध आए तब शुद्धोधन और महाप्रजावती यशोधरा को बहुतेरा समझाते हैं कि उसे अपने पति के दर्शन के लिए प्रस्तुत होना चाहिए। किन्तु वह इसके लिए प्रस्तुत नहीं होती। वह समझती है कि उसने अपने पति का साथ नहीं छोडा है। उसके पति ही उससे छिपकर घर से निकल गए। अतः उन्हें ही उसके पास आना चहिए। जब उसके सास ससुर उससे मगध चलने का आग्रह करते जाते हैं तो मानिनी यशोधरा आवेश मैं आकर मूर्छित हो जाती हैं।

जब गौतम बुद्ध कपिलवस्तु मैं पधारते हैं तब मानिनी अब वही बैठी है जहाँ पर उसके प्रियतम उसे छोडकर गए हैं। वह समझाती है कि जब उन्हें इष्ट होगा तब स्वयं आकर या बुलाकर वे उसे अपने चरणों मैं स्थान देंगे। होता भी यही है। स्वयं गौतम बुद्ध को अपनी मानिनी के द्वार पर आना पड़ता है और कहना पड़ता है--

मानिनी मान तजो, लो, अब तो रही तुम्हारी बात।

बाहरी कड़ियाँ

कविता कोश पर मैथिलीशरण गुप्त रचित "यशोधरा"