मोइनुद्दीन चिश्ती

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मोइनुद्दीन चिश्ती
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धर्म इस्लाम
पाठशाला हनफ़ी, मतुरीदी
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आदेश चिश्ती तरीक़ा
व्यक्तिगत विशिष्ठियाँ
जन्म साँचा:br separated entries
निधन साँचा:br separated entries
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बच्चे लुआ त्रुटि package.lua में पंक्ति 80 पर: module 'Module:i18n' not found।
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धार्मिक जीवनकाल
गुरु ʿAbdallāh Anṣārī,[२] Najīb al-Dīn Nakhshabī[२]
शिष्य Muḥammad Mubārak al-ʿAlavī al-Kirmānī,[३] Ḥāmid b. Faḍlallāh Jamālī,[३] ʿAbd al-Ḥaqq Muḥaddith Dihlavī,[३] Ḥamīd al-Dīn Ṣūfī Nāgawrī,[४] Fakhr al-Dīn Chishtī,[४] and virtually all subsequent mystics of the Chishtiyya order

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ख़्वाजा मोइनुद्दीन हसन चिश्ती की मज़ार अजमेर शहर में है। यह माना जाता है कि मोइनुद्दीन चिश्ती का जन्म ५३७ हिज़री संवत् अर्थात ११४३ ई॰ पूर्व पर्शिया के सिस्तान क्षेत्र में हुआ।[५] अन्य खाते के अनुसार उनका जन्म ईरान के इस्फ़हान नगर में हुआ। ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह के खादिम भील पूर्वजों के वंसज है।[६] इन्हें हज़रत ख्वाजा गरीब नवाज़[७] के नाम से भी जाना जाता है। ग़रीब नवाज़[८] इन्हें लोगों द्वारा दिया गया लक़ब है।[९]

चिश्तिया तरीका - पुनर्स्थापना

चिश्तिया तरीका अबू इसहाक़ शामी ने ईरान के शहर "चश्त" में शुरू किया था, इस लिए इस तरीक़े को "चश्तिया" या चिश्तिया तरीका नाम पड गया। लैकिन वह भारत उपखन्ड तक नहीं पहुन्चा था। मोईनुद्दीन चिश्ती साहब ने इस सूफ़ी तरीक़े को भारत उप महाद्वीप या उपखन्ड में स्थापित और प्रचार किया। यह तत्व या तरीक़ा आध्यात्मिक था, भारत भी एक आध्यात्म्कि देश होने के नाते, इस तरीक़े को समझा, स्वागत किया और अपनाया। धार्मिक रूप से यह तरीका बहुत ही शान्तिपूर्वक और धार्मिक विग्नान से भरा होने के कारण भारतीय समाज में इन्के सिश्यगण अधिक हुवे। इन्की चर्चा दूर दूर तक फैली और लोग दूर दूर से इनके दरबार में हाजिर होते, और धार्मिक ग्यान पाते।

अजमेर में उनका प्रवेश

अजमेर में जब वे धार्मिक प्रचार करते तो चिश्ती तरीके से करते थे। इस तरीके में ईश्वर गान पद्य रूप में गायन के माध्यम से लोगों तक पहुँचाया जाता था। मतलब ये कि, क़व्वाली, समाख्वानी, और उपन्यासों द्वारा लोगों को ईश्वर के बारे में बताना और मुक्ति मार्ग दर्शन करवाना। स्थानीय हिन्दू राजाओं से भी कई मतभेद हुए परन्तु वह सब मतभेद स्वल्पकालीन थे। स्थानीय राजा भी मोईनुद्दीन साहब के प्रवचनों से मुग्ध हुए और उनपर कोई कष्ट या आपदा आने नहीं दिया।

इस तरह स्थानीय लोगों के हृदय भी जीत लिये, और लोग भी इनके मुरीद (शिष्य) होने लगे।

उनके आखरी पल

मोईनुद्दीन चिश्ती दरगाह, अजमेर।

६३३ हिज़री के आते ही उन्हें पता था कि यह उनका आखरी वर्ष है, जब वे अजमेर के जुम्मा मस्जिद में अपने प्रशंसको के साथ बैठे थे, तो उनहोंने शेख अली संगल (र अ) से कहा कि वे हज़रत बख्तियार काकी (र अ) को पत्र लिखकर उन्हें आने के लिये कहें। ख्वाजा साहेब के बाद क़ुरान-ए-पाक, उनका गालिचा और उनके चप्पल काकी (र अ) को दिया गया और कहा "यह विशवास मुहम्म्द (स अ व्) का है, जो मुझे मेरे पीर-ओ-मुर्शिद से मिला हैं, मैं आप पर विशवास करके आप को दे रहा हुँ और उसके बाद उनका हाथ लिया और नभ की ओर देखा और कहा "मैंने तुम्हें अल्लाह पर न्यास्त किया है और तुम्हें यह मौका दिया है उस आदर और सम्मान प्राप्त करने के लिए।" उस के बाद ५ और ६ रजब को ख्वाजा साहेब अपने कमरे के अंदर गए और क़ुरान-ए-पाक पढने लगे, रात भर उनकी आवाज़ सुनाई दी, लेकिन सुबह को आवाज़ सुनाई नहीं दी। जब कमरा खोल कर देखा गया, तब वे स्वर्ग चले गये थे, उनके माथे पर सिर्फ यह पंक्ति चमक रही थी "वे अल्लाह के मित्र थे और इस संसार को अल्लाह का प्रेम पाने के लिए छोड दिया।" उसी रात को काकी (र अ) को मुहम्मद (स अ व्) स्वपन में आए थे और कहा "ख्वाजा साहब अल्लाह के मित्र हैं और मैं उनहें लेने के लिये आया हुँ। उनकी जनाज़े की नमाज़ उन के बड़े पुत्र ख्वाजा फ़क्रुद्दीन (र अ) ने पढाई। हर साल हज़रत के यहाँ उनका उर्स बड़े पैमाने पर होता है।

वंश

मक़बरा ख़्वाजा हुसैन अजमेरी औलाद (वंशज) ख़्वाजा मोईनुद्दीन हसन चिश्ती रहमतुल्लाह अलैह, अजमेर शरीफ शाहजहानी मस्जिद के पीछे

ख्वाजा हुसैन चिश्ती अजमेरी (اُردُو :- خواجه حسین) आपको शैख़ हुसैन अजमेरी और मौलाना हुसैन अजमेरी, ख्वाजा हुसैन चिश्ती के नाम से भी जाना जाता है, ख्वाजा हुसैन अजमेरी ख़्वाजा मोईनुद्दीन हसन चिश्ती के वंशज (पोते) है, बादशाह अकबर के अजमेर आने से पहले से ख़्वाजा हुसैन अजमेरी अजमेर दरगाह के सज्जादानशीन व मुतवल्ली प्राचीन पारिवारिक रस्मों के अनुसार चले आ रहे थे, बादशाह अकबर द्वारा आपको बहुत परेशान किया गया और कई वर्षों तक कैद में भी रखा। दरगाह ख़्वाजा साहब अजमेर में प्रतिदिन जो रौशनी की दुआ पढ़ी जाती है वह दुआ ख़्वाजा हुसैन अजमेरी द्वारा लिखी गई थी। आपका विसाल 1029 हिजरी में हुआ। यही तारीख़ मालूम हो सकी। गुम्बद की तामीर बादशाह शाहजहाँ के दौर में 1047 में हुई।

साधारण संस्क्रुती में

हुसैन इब्न अली के पाशस्त में इन्हों ने यह कविता लिखी, जो दुनियां भर में मशहूर हुई।

शाह अस्त हुसैन, बादशाह अस्त हुसैन
शाह हैं हुसैन, बादशाह हैं हुसैन

दीन अस्त हुसैन, दीनपनाह अस्त हुसैन
धर्म हैं हुसैन, धर्मरक्षक हैं हुसैन

सरदाद न दाद दस्त दर दस्त ए यज़ीद
अपना सर पेश किया, मगर हाथ नहीं पेश किया आगे यज़ीद के

हक़्क़ाक़-ए बिना-ए ला इलाह अस्त हुसैन
सत्य है कि हुसैन ने शहादा की बुनियाद रखी

चिश्ती तरीक़े के सूफ़ीया

मोइनुद्दीन साहब के तक्रीबन एक हज़ार खलीफ़ा और लाखों मुरीद थे। कयी पन्थों के सूफ़ी भी इनसे आकर मिल्ते और चिश्तिया तरीके से जुड जाते। इन्के शिश्यगणों में प्रमुख ; क़ुत्बुद्दीन बख्तियार काकी, बाबा फ़रीद्, निज़ामुद्दीन औलिया, हज़रत अह्मद अलाउद्दीन साबिर कलियरी, अमीर खुस्रो, नसीरुद्दीन चिराग दहलवी, बन्दे नवाज़, अश्रफ़ जहांगीर सिम्नानी और अता हुसैन फ़ानी.

आज कल, हज़ारो भक्तगण जिन में मुस्लिम, हिन्दू, सिख, ईसाई व अन्य धर्मों के लोग उर्स के मोके पर हाज़िरी देने आते हैं।

मक़्बरे का बाहरी मन्ज़र

आध्यात्मिक परंपरा

  1. हसन अल बस्री
  2. अब्दुल वाहिद बिन ज़ैद
  3. फ़ुदैल बिन ल्याद
  4. इब्राहीम बिन अदहम
  5. हुदैफ़ा अल-मराशी
  6. अमीनुद्दीन अबू हुबैरा अल बस्री
  7. मुम्शाद दिन्वारी
चिश्ती तरीक़े का आरम्भ
  1. अदुल इसहाक़ शामी चिश्ती
  2. अबू मुहम्मद अब्दाल चिश्ती
  3. अबू मुहम्मद चिश्ती
  4. अबू यूसुफ़ बिन समआन हुसेनी
  5. मौदूद चिश्ती
  6. शरीफ़ ज़न्दानी
  7. उस्मान हारूनी
  8. मुनीरुद्दीन हाजी चिश्ती
  9. यूसुफ़ चिश्ती
  10. मोईनुद्दीन चिश्ती

इनके भक्तगण और भक्तजन

भारत उपमहाद्वीप के हर हिस्से में इनके चाहने वाले मिलेंगे। जब इनका उर्स होता है तो देश विदेशों से अक़ीदतमन्द लोग इनके दरगाह पर हाज़री देते हैं और दुआयें करते हैं। इस उर्स के मोक़े पर भारत सरकार और दीगर राज्य सरकारें अनेक सुविधायें करती हैं। जैसे, स्पेशल रैल गाडियां लगाना, सरकारी तौर पर उर्स के निर्वाहन के लिये सुविधायें करना, सरकारी व प्रशासनिक व्यवस्थाएं करना। भारत सरकार और राजस्थान राज्य सरकार की तरफ़ से चादर भी चढाई जाती है।

अगर चंद दिनों के लिए दिल्ली की गद्दी पर बैठने वाले हेमू को छोड़ दें तो पृथ्वीराज चौहान दिल्ली पर राज करने वाले अंतिम हिन्दू सम्राट थे। उनके काल में ही मोईनुद्दीन चिश्ती नामक एक ‘सूफी संत’ भारत आया था, जिसे ‘गरीब नवाज’ कहा गया। आज के राजस्थान, हरियाणा और दिल्ली के अधिकतर हिस्सों के अलावा उत्तर प्रदेश, पंजाब और मध्य प्रदेश के कई इलाकों में भी तब चौहान का ही शासन था। उन्होंने 1178 से लेकर 1192 ईश्वी तक राज किया। उन्हें ‘पृथ्वीराज रासो’ के कारण ज्यादा जाना जाता है।


पृथ्वीराज चौहान के काल में ही अजमेर में एक फकीर आकर बसे थे, जिसे लोग सूफी संत भी कहते हैं। उसका नाम था – ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती। जी हाँ, वही मोईनुद्दीन चिश्ती, जिसकी दरगाह अजमेर में आज भी मौजूद है और हर साल लाखों मुस्लिमों के साथ-साथ हिन्दू भी वहाँ चादर चढ़ाने जाते हैं। प्रधानमंत्री तक की तरफ से वहाँ चादर जाता है। लेकिन, क्या आपको पता है कि दिल्ली से हिन्दू शासन को उखाड़ फेंकने में उसका भी हाथ था?


12वीं शताब्दी का खत्म होने वाला समय वो काल था, जब भारत में चीजें तेजी से बदल रही थीं। मोहम्मद गोरी सीमा पर आ बैठा था, जिसे तराइन के प्रथम युद्ध में पृथ्वीराज चौहान ने हरा दिया था। अपमानित गोरी को पृथ्वीराज ने जीवनदान दिया, लेकिन उनकी इस एक गलती ने भारत की सदियों की गुलामी की पटकथा लिख दी और दिल्ली श्रीहीन हो गई। मोहम्मद गोरी वापस गजनी जाकर एक बड़ी फौज तैयार करने लगा।


ये महज ‘संयोग’ ही था या कुछ और कि जिस साल मोहम्मद गोरी हार कर भागा, उसके अगले ही साल या कुछ ही दिनों बाद एक सूफी संत ने अजमेर में डेरा जमाया, पृथ्वीराज चौहान की राजधानी में। वहाँ वह कई चमत्कार करने लगा। आस-पास के लोगों में उसके प्रति जिज्ञासा जागी। वह लोगों से काफी अच्छे से पेश आता। गाँव के गाँव इस्लाम में धर्मांतरित होने शुरू हो गए। बिना हथियार उठाए चिश्ती ने वो जमीन तैयार कर दी, जहाँ वो अगले 44 वर्षों तक इस्लाम का प्रचार-प्रसार करता रहा।


इस्लामी जिहाद के लिए भारत आया था चिश्ती?

1191 में गोरी हारा और 1192 में दोबारा लौट कर आया। इसी अवधि के बीच चिश्ती ने अजमेर में डेरा जमाया। आखिर ऐसे संवेदनशील समय में चिश्ती भारत क्यों आया था? वो अपने चेलों-शागिर्दों के साथ पहुँचा था। ‘Islamic Jihad: A Legacy of Forced Conversion, Imperialism, and Slavery‘ में MA खान लिखते हैं कि चिश्ती ‘काफिरों के खिलाफ इस्लामी जिहाद’ के लिए भारत आया था।


इस पुस्तक में लिखा है कि पृथ्वीराज चौहान के खिलाफ गद्दारी वाला युद्ध लड़ने के लिए ही मोईनुद्दीन चिश्ती भारत आया था, ताकि वो मोहम्मद गोरी की तरफ से उसकी सहायता कर सके और उसका काम आसान कर सके। ये इतिहास है कि तराइन का दूसरा युद्ध 1192 में हुआ और उसमें पृथ्वीराज चौहान की हार हुई। चौहान ने भले ही गोरी को छोड़ दिया हो, गोरी ने ऐसा बिलकुल भी नहीं किया और उनकी आँखें फोड़वा दीं।


तभी तो पृथ्वीराज चौहान की हार के बाद ‘ख्वाजा’ मोईनुद्दीन चिश्ती ने जीत का श्रेय लेते हुए कहा था, “हमने पिथौरा (पृथ्वीराज चौहान) को जिंदा दबोच लिया और उसे इस्लाम की फौज के हवाले कर दिया।” ये भी कहा जाता है कि एक दिन अचानक से ‘गरीब नवाज’ चिश्ती को स्वप्न में पैगम्बर मोहम्मद का संदेश मिला कि उसे भारत में उनके दूत के रूप में भेजा जा रहा है। फिर वो भारत आ गया। उसकी सोच एकदम ऐसी ही थी, जैसी अभी जाकिर नाइक की है।


https://twitter.com/Sanjay_Dixit/status/1198467689833910274?ref_src=twsrc%5Etfw

MA खान की पुस्तक के अनुसार, मोईनुद्दीन चिश्ती को निजामुद्दीन औलिया के बाद दूसरा सबसे बड़ा सूफी संत माना गया लेकिन उसने अजमेर की आनासागर झील को अपवित्र कर दिया था। उसने अल्लाह और पैगम्बर की मदद से झील के किनारे बसे मंदिरों को जमींदोज करने का ऐलान किया था। साथ ही वो मंदिरों और उसमें स्थित मूर्तियों की पूजा होते देख कर खफा भी था। बता दें कि इस्लाम में मूर्तिपूजा हराम है।


ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती के चेले रोज एक गाय काट कर लाते थे और उसी झील के किनारे मंदिरों के प्रांगण के नजदीक खाते थे, जहाँ राजा-महाराजा से लेकर ब्राह्मण-श्रद्धालु तक प्रार्थना किया करते थे। जहाँ माँस तक वर्जित था, वहाँ गोमांस का कबाब चलने लगा। लोगों का ये भी मानना था कि चिश्ती ने आनासागर और पनसेना की दो झीलों को ‘चमत्कार से’ सुखा दिया था, जो कि हिन्दुओं के लिए पवित्र थे।


इस अनासागर झील का निर्माण ‘राजा अरणो रा आनाजी’ ने 1135 से 1150 के बीच करवाया था। ‘राजा अरणो रा आनाजी’ सम्राट पृथ्वीराज चौहान के पिता थे। आज इतिहास की किताबों में अजमेर को हिन्दू-मुस्लिम’ समन्वय के पाठ के रूप में तो पढ़ाया जाता है, लेकिन यह जिक्र नहीं किया जाता है कि ये सूफी संत भारत में जिहाद को बढ़ावा देने और इस्लाम के प्रचार के लिए आया था, जिसके लिए उसने इस्लामी धर्मांतरण को ही अपना एकमात्र लक्ष्य बनाया।


पृथ्वीराज चौहान को कई इतिहासकार भारत में मुस्लिम राज की एंट्री के लिए दोषी मानते हैं क्योंकि उनके आस-पास के कई हिन्दू राजाओं के साथ सम्बन्ध अच्छे नहीं थे। जो पृथ्वीराज चौहान 11 वर्ष की उम्र में राजा बन गए थे, उन्हें धोखे से हराने के लिए इस्लामी आक्रांताओं को कई तिकड़म बुनने पड़े। ‘हम्मीर महाकाव्य’ कहता है कि मोहम्मद गोरी को पृथ्वीराज ने 8 बार हराया था और कई अन्य राजाओं के राज उसे लौटाने को भी कहा था। 9वीं बार वो पृथ्वीराज को हराने में सफल रहा।

‘पृथ्वीराज रासो’ और ‘प्रबंध कोष’ की मानें तो पृथ्वीराज चौहान ने मोहम्मद गोरी को 20 बार हराया था और 21वीं बार वो खुद हार गए। हर बार उन्होंने गोरी को बिना नुकसान पहुँचाए छोड़ दिया। तराइन के प्रथम युद्ध के विवरणों से ही स्पष्ट है कि पृथ्वीराज चौहान ने या तो मोहम्मद गोरी की अति-महत्वाकांक्षा को पढ़ने में भूल कर दी, या निर्दयी शत्रु के सामने रूरत से ज्यादा उदारता दिखा दी और उसे छोड़ दिया।


16वीं शताब्दी के मुस्लिम इतिहासकार फिरिश्ता की मानें तो पृथ्वीराज चौहान की सेना विशाल थी और उसमें 2 लाख घोड़ों के अलावा 3000 हाथी भी थे। असल में मोहम्मद गोरी ने तबारहिंदह (ताबर-ए-हिन्द) पर कब्जा कर लिया था। आज इस क्षेत्र को बठिंडा के नाम से जानते हैं। ये खबर सुन कर वहाँ पृथ्वीराज पहुँचे और तराइन का प्रथम युद्ध हुआ। मोहम्मद गोरी गोरी घायल हुआ और पकड़ा गया। पृथ्वीराज चौहान ने हारी हुई सेना का पीछा तक नहीं किया और सभी को जाने दिया।


तराइन के दूसरे युद्ध में गोरी पूरी तैयारी के साथ आया था और उसने वापस जाकर 1.2 लाख अफगान, ताजिक (पर्सियन-ईरानी) और तुर्क फौज इकट्ठा की – सब के सब मँझे हुए योद्धा। ‘पृथ्वीराज रासो’ कहता है कि अजमेर और दिल्ली के हिन्दू सम्राट तब भोग-विलास में व्यस्त हो गए थे। युद्ध में गोरी ने धोखा, लालच और तिकड़मों से काम लिया और पृथ्वीराज की हार हुई। फिर हजारों के खून बहे, कई को वो दास बना कर साथ ले गया और कई मंदिरों को ध्वस्त किया।

इन्हें भी देखें

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मीडिया में

इनके करामात पर कई हिन्दी अथवा उर्दू फिल्में बनीं। और इन के जीवन पर कई गीत भी लिखे गये और गाये भी गये।

भारत उपमहाद्वीप में जहां कहीं भी क़व्वाली होती है, तो उन क़व्वालियों में इनके बारे में "मनक़बत" (वलियों की प्रशंसा करते हुए गीत या पद्य) गाना एक आम परंपरा है।

  • उर्दू फ़िल्म - मेरे गरीब नवाज़
  • उर्दू फ़िल्म - सुल्तान-ए-हिन्द

सन्दर्भ

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  2. Ḥamīd al-Dīn Nāgawrī, Surūr al-ṣudūr; cited in Auer, Blain, “Chishtī Muʿīn al-Dīn Ḥasan”, in: Encyclopaedia of Islam, THREE, Edited by: Kate Fleet, Gudrun Krämer, Denis Matringe, John Nawas, Everett Rowson.
  3. Blain Auer, “Chishtī Muʿīn al-Dīn Ḥasan”, in: Encyclopaedia of Islam, THREE, Edited by: Kate Fleet, Gudrun Krämer, Denis Matringe, John Nawas, Everett Rowson.
  4. साँचा:cite encyclopedia
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बाहरी कडियां

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