बाड़मेर जिला

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बाड़मेर ज़िला
Barmer district
मानचित्र जिसमें बाड़मेर ज़िला Barmer district हाइलाइटेड है
सूचना
राजधानी : बाड़मेर
क्षेत्रफल : 28,387 किमी²
जनसंख्या(2011):
 • घनत्व :
26.04 lakh
 92/किमी²
उपविभागों के नाम: तहसील
उपविभागों की संख्या: 17
मुख्य भाषा(एँ): हिन्दी, राजस्थानी


बाड़मेर के पास रेत के टीले
ज़िले की शिल्पकलाएँ प्रसिद्ध हैं - मध्य 20वीं शताब्दी की एक ओढ़नी

बाड़मेर ज़िला भारत के राजस्थान राज्य का एक ज़िला है। ज़िले का मुख्यालय बाड़मेर है।[१][२][३] ज़िला मुख्यालय बाड़मेर के अलावा अन्य मुख्य कस्बे बालोतरा, गुड़ामलानी, बायतु, सिवाना, जसोल, चौहटन, धोरीमन्ना और उत्तरलाई हैं। बाड़मेर के पचपदरा में एक अत्याधुनिक रिफ़ाइनरी निर्माणाधीन है। ‌‌‍‍‌[४]

बाड़मेर के पहले शहीद मंगल सिंह राणावत थे जो कि द्वितीय विश्व युद्ध में वीरता से लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए

रेवाडा जैतमाल उनका गांव है।

प्रशासनिक इकाइयां

1. उप जिला: -गांव(no. of villages)

    * बाड़मेर-211
    * बायतु-317
    * चौहटन-322
    * गुड़ामालानी-362 
    * पचपदरा-231
    * रामसर-125
    * शिव-250
    * सिवाना-115

2. उपखण्ड: * बाड़मेर, * बालोतरा, * गुड़ामालानी, * सिवाना, * बायतु, * शिव, * चौहटन, * धोरीमना, * सेड़वा, * समदड़ी, * रामसर, * सिणधरी

3. तहसीलें: * बाड़मेर, * सिवाना , * पचपदरा, * गुड़ामालानी, * बायतु, * शिव, * चौहटन, * धोरीमना, * समदड़ी, * रामसर, * सिणधरी, * सेड़वा, * धनाऊ, * गड़रारोड़, * गिड़ा, * नोखड़ा,

3. पंचायत समितियाँ: * बाड़मेर, * सिवाना , * बालोतरा, * गुड़ामालानी,*आडेल , * बायतु, * शिव, * चौहटन, * धोरीमना, * समदड़ी, * रामसर, * सिणधरी, * सेड़वा, * धनाऊ, * गड़रारोड़, * गिड़ा, * कल्याणपुर, * पाटोदी

बाड़मेर का इतिहास

बाडमेर की स्थापना 13वी शदी मे राव बाहड राव परमार ने की ओर उन्ही का नाम पर बाड़मेर नाम पड़ा, बाहड राव परमार जूना बाडमेर के शासक थे तथा जूना बाडमेर की पहाडी पर ही बाहड राव परमार ने एक छोटे से किले का निर्माण भी कराया जो जो जूना बाडमेर गढ नाम (13वी सदी) से जाना जाता था।

जूना बाडमेर वर्तमान बाडमेर शहर से 25 km दूर स्थित है। परमारो के बाद जूना बाहडमेर पर चौहानो का अधिपत्य हुआ। उसके बाद रावत लूंका (रावल जगमाल के पुत्र व रावल मल्लीनाथ के पौत्र) ने अपने भाई रावल मंडलीक की सहायता से चौहान शासक (राव मुंधा जी) से बाडमेर जीता व जूना बाडमेर में अपना राज्य स्थापित कर जूना को अपनी राजधानी बनाया।

रावत लूंका के बाद क्रमश:

रावत शेखा, रावत जैता, रावत रता, व रावत भीम हुए।

रावत भीम (कुशल शासक व योद्घा) ने 15वीं से 16वीं ईस्वी के बीच अपनी राजधानी को जूना बाडमेर से स्थानान्तरित किया व वर्तमान बाडमेर शहर की स्थापना की व नया बाडमेर बसाया व पहाडी दुर्ग(गढ बाडमेर) का निर्माण कराया। पुराने बाडमेर जूना मे स्थित को जूना बाडमेर व नये बसाये बाडमेर का नया बाडमेर कहा जाने लगा।

कालांतर मे नया शब्द धीरे धीरे हटता गया व बाडमेर शब्द प्रचलन मे आया।

7 अप्रेल 1948 को भारत सरकार ने राजस्थान राज्य मे बाडमेर को नया जिला बनाया।

भूगोल

थार मरुस्थल का एक भाग बाड़मेर जिला, राजस्थान के पश्चिम में स्थित है। जिला उत्तर में जैसलमेर जिले, दक्षिण में जालौर जिले, पूर्व में पाली और जोधपुर जिले तथा पश्चिम में पाकिस्तान से घिरा है। जिले का कुल क्षेत्रफल 28387 वर्ग किमी है। जिला उत्तरी अक्षांश 24,58’ से 26, 32’ और पूर्वी देशान्तर 70, 05’ से 72, 52’ के मध्य स्थित है।

जिले में सबसे लंबी नदी लूणी नदी है। यह जालोर के मध्यम से गुजरकर कच्छ की खाड़ी के समीप की भूमि में ही सोख ली जाती है, और इसकी कुल लंबाई 480 किमी है। विभिन्न ऋतुओं में तापमान में बदलाव काफी अधिक है। गर्मियों में तापमान 51 डिग्री सेल्सियस तक और सर्दियों में यह शून्य डिग्री सेल्सियस (32° फैरनहाइट) तक चला जाता। एक साल में औसत वर्षा केवल 277 मिमी है, और मुख्य रूप से बाड़मेर जिला एक रेगिस्तान है। फिर भी, 16 और 25 अगस्त 2006 के बीच 549 मिमी की चरम वर्षा से आई बाढ़ की वजह से कई लोग मारे गए और भारी नुकसान हुआ।

मुख्य आकर्षण

-ब्रह्मा जी का मंदिर आसोतरा

ब्रह्मा जो हिंदुओं के भगवान है इनके दो रूप है विष्णु और महेश ये ब्रह्मा जी के अवतार है। ब्रह्मा जी का एक मन्दिरपुष्कर ,राजस्थान में स्थित है और दूसरा मन्दिर यह है जो पीले (सुनहरे पत्थरों) से जो विशेष रूप से जैसलमेर के पत्थरों से बनाया गया है। इस मन्दिर का विश्राम गृह जोधपुरी पत्थर (चितर पत्थर) से बनाया गया है। मन्दिर में ब्रह्माजी की मूर्ति स्थापित है ,जो संगमरमर की बनाई गई है। इस मन्दिर की स्थापना २० अप्रैल १९६१ में शुरू हुआ था। यहां हर दिन २०० किलोग्राम तक की अनाज पक्षियों को खिलाते हैं। यह भारत का पहला ऐसा ब्रह्मा जी का जिसमें ब्रम्हाजी के साथ माता सावित्री विराजमान है। इस मंदिर का निर्माण राजपुरोहित( जागीरदार) समाज के कुलगुरु श्री श्री 1008 श्री खेताराम जी महाराज (विष्णु अवतार) द्वारा करवाया गया। इसलिए इस पवित्र मंदिर को राजपुरोहित समाज की राजधानी भी कहा जाता है - बाटाड़ू का कुआँ

संंगमरमर से निर्मित यह कुआँ बायतू तहसील के बाटाड़ू कस्बे में बना हुआ है। कलात्मकता व धार्मिक आस्था का केंद्र यह कुआं ऐतिहासिक धरोहर के रूप में जाना जाता है। राजस्थान के इतिहास में इस कुएं को जलमहल के नाम से जाना जाता है। रियासतकालीन यह कुआं जो बीते कई दशकों से बाटाड़ू एवं आस-पास के गांवों के लिए पीने के पानी का एक महत्वपूर्ण स्त्रोत रहा है,हालांकि अभी वहां पर केयर्न कंपनी द्वारा पानी को 'RO filtered' करके 'Water ATM' के जरिए भी उपलब्ध करवाया जा रहा है। लेकिन फिर भी इस कुऐं का महत्व कम नहीं हुआ है,आजकल के युवा इसका महत्व जानकर इस ऐतिहासिक स्थल पर 'सेल्फ़ी क्लिक' करते अमूमन नज़र आ जाते हैंं।

इसलिए ऐतिहासिक रूप से महत्वपूर्ण है यह कुआं

बाटाडू मुख्यालय पर स्थित यह कुआं 60 फीट लंबा, 35 फीट चौड़ा, 6 फीट ऊंचा व 80 फीट गहरा है। कुएं की उत्तर दिशा में एक बड़ा कुंड बना है, जिसकी गहराई 5 फीट है। इस कुंड के बीच में एक मकराना निर्मित पत्थर के स्टैंड के ऊपर बड़े आकार में संगमरमर की गरुड़ प्रतिमा बनी हुई है,जिस पर भगवान विष्णु अपनी पत्नी लक्ष्मी के साथ विराजित है। जो कुएं का मुख्य आकर्षक है। इस कुएं पर जाने के लिए एक मुख्य द्वार तथा एक निकासी द्वार है। इस दोनों द्वार पर दो सिंह प्रतिमाएं लगी हुई है। इसके चारों ओर श्लोकों के साथ ही कई राजा-महाराजाओं और देवी-देवताओं की कला का वर्णन किया गया है। इसके साथ ही यहां पर संस्कृत में उत्कीर्ण श्लोकों में गाय की महिमा का वर्णन किया हुआ है।

सिणधरी रावल ने करवाया था निर्माण

सन् 1947 के काल में मारवाड़ क्षेत्र में भयंकर अकाल पड़ा। उस दौरान यहां के लोग रोजी रोटी की तलाश में बाहर जाने के लिए मजबूर हुए और दूर-दूर तक कहीं पीने का पानी उपलब्ध नहीं था। ऐसी स्थिति को देखते हुए सिणधरी रावल गुलाबसिंह ने इस कुएं का निर्माण करवाया था।

विरात्रा माता का मेला

चोहटन तहसील से लगभग 10 किलोमीटर की दूरी पर स्थित विरात्रा में मेला आयोजित किया जाता है। यहाँ साल में तीन बार चैत्र, भाद्रपद तथा माघ में वांकल देवी की पूजा का मेला लगता है। विरात्रा माता की मूर्ति की स्थापना वीर विक्रमादित्य ने की थी। वांकल देवी के पुजारी गहेलड़ा परमार जिनको आदर भाव से भोपा भी कहा जाता है , यहां पर देवी की पूजा करते है। गहेलड़ा( भोपा) पांच गाँवो घोनिया , ढोक , सनाउ , जसाई और परो में निवास करते है। इस स्थान पर मूर्ति लाते हुए विक्रमादित्य ने रात्रि विश्राम किया था।

जसोल

एक समय में जसोल मालानी का प्रमुख क्षेत्र था। रावल मल्लीनाथ के नाम पर परगने का नाम मालानी पङा, इस प्राचीन गांव का नाम राठौड़ उपवंश के वंशजों के नाम पर पड़ा। यहां पर स्थित जैन मंदिर और हिंदु मंदिर जसोल के मुख्य आकर्षण हैं। यहां एक चमत्कारिक देवी माता रानी भटीयाणी का मन्दिर है।

वैर माता मंदिर

वैर माता मंदिर - यह पहाड़ी के पीछे स्थित हिंदू मंदिर है जो मुख्य चोहटन शहर में है। शहर और मंदिर के बीच की दूरी 4 किमी है। इस मंदिर के पास 100 मीटर से अधिक ऊँची रेत के टीले


खेमा बाबा मंदिर बायतु

एक प्रसिद्ध धार्मिक स्थल जो बायतु तहसील में पड़ता हैं जो खेमा बाबा के नाम से प्रसिद्ध हैं यहाँ पर जाट तथा अन्य जातियां धोक लगाती हैं तथा आराधना करती हैं यहां पर सर्पदंश से पीड़ित व्यक्ति को लाने से लाभ मिलता हैं यहाँ पर मेला लगता हैं जिसमे हजारो की संख्या में भक्तगण आते हैं भक्तगण बाड़मेर, जोधपुर, जैसलमेर, नागौर, जालोर तथा अन्य जिलों से आते हैं बाड़मेर जिले से यह स्थल 50 किमी जोधपुर रोड पर तथा जोधपुर रेलवे लाइन पर पड़ता हैं

बोथिया

यह जैसलमेर रोड पर बसा हुआ एक गाँव है.यहाँ पर राजपुरोहित जाति का निवास जिनकी जनजाति भी बोईतिया है यह पुराने वक़्त के जागीरदारों से बसाया गया गाँव है.यहाँ पर ASIA की सबसे बड़ी Open Mine है.यहाँ तेल के बड़े कुएँ भी है जो गुजरात जमानगर से जुड़ते है.साल २००८ के बाद बाड़मेर के लोगों को आय स्रोत तेल उध्योग है यहाँ तेल के कई बड़े बड़े उध्योगपति है जो बाड़मेर मैं समाजसेवी का ऊँचा दर्जा रखते है इनमे शामिल है तनसिंघ चौहान(उध्योगपति ओर समाजसेवी) रामसिंह बोथिया (उध्योगपति,समाजसेवी,बोथिया के सरपंच


H=== हरसाणी === यह बाडमेर-गिराब और शिव-गडरारोड सडक के मिलन स्थल पर एक चोराहे पर आया हुआ है यहाँ एक माल्हण बाई का चमत्कारिक मन्दिर है।

जानसिह की बेरी

यह ग्राम शिव-गडरारोड मार्ग पर शिव से 43 किलोमिटर पर आया हुआ है यहाँ एक सच्चियाय माता क मन्दिर है।

खेड़

राठौड़ वंश के संस्थापक राव सिहा और उनके पुत्र ने खेड़ को गुहिल राजपूतों से जीता और यहां राठौड़ों का गढ़ बनाया। रणछोड़जी का विष्णु मंदिर यहां का प्रमुख आकर्षण है। मंदिर के चारों और दीवार बनी है और द्वार पर गरुड़ की प्रतिमा लगी है जिसे देख कर लगता है मानो वे मंदिर की रक्षा कर रहे हों। पास ही ब्रह्मा, भैरव, महादेव और जैन मंदिर भी हैं। जो सैलानियो का मुख्य आकर्षण का केन्द्र है। गुहिल राजपूत यहाँ से भावनगर चले गये और १९४७ तक शासन किया।

मेहलू

जिला मुख्यालय से 41 किलोमीटर दूर मेहलू गांव स्थिति है यहां धर्मपुरी जी का मंदिर है तथा यहां विशाल मेला भरता है . Dharmpuri ki katha v bhajan ke gayak- shri Tej bharti Goswami Sanawara hai. Fact knowladge By PPG.

झनकली यह गांव गढ़ारा रोड तहसील में पड़ता है ,यहां पर अधिकतर आबादी चारण जाती जो देवी पुत्र है निवास करती है और यहां पर शिला माता "मंदिर ढाकनिया" और श्री देमा लच्छा माता मंदिर व करणी माता, देवल माता , आदि मंदिर स्थित है स्थित है यह एक पवित्र भूमि है जैसे देवियों की भूमि भी कहा जाता है यहां पर सभी व्यक्ति अपने उच्च विचारों और विख्यात कवियों के रूप में जाने जाते हैं जिनमें से प्रमुख ना मधुकर कवि भंवर दान अनुदान जेठू दान जी आदि है लेखक:- चेनाराम गोदारा

किराड़ू मन्दिर

"राजस्थान के खजुराहो" धोरों के गढ़ बाड़मेर में किराड़ू का मंदिर वर्तमान हत्मा गांव में जर्जर हालात में उपस्तिथ है। किराड़ू को राजस्थान का खजुराहो कहा जाता है,दक्षिण भारतीय शैली में बना किराड़ू का मंदिर अपनी स्थापत्य कला के लिए प्रसिद्ध है। बाड़मेर से 43 किलोमीटर दूर हात्मा गांव में ये मंदिर है। खंडहरनुमा जर्जर से दिखते पांच मंदिरों की श्रृंखला की कलात्मक बनावट देखने वालों को मोहित कर लेती हैं। कहा जाता है कि 1161 ई. इस स्थान का नाम 'किराट कूप' था। करीब 1000 ई. में यहां पर पांच मंदिरों का निर्माण कराया गया। लेकिन इन मंदिरों का निर्माण किसने कराया, इसके बारे में कोई पुख्ता जानकारी उपलब्ध नहीं है। लेकिन मंदिरों की बनावट शैली देखकर लोग अनुमान लगाते है कि इनका निर्माण दक्षिण के गुर्जर-प्रतिहार वंश, संगम वंश या फिर गुप्त वंश ने किया होगा। मंदिरों की इस शृंखला में केवल विष्णु मंदिर और शिव मंदिर (सोमेश्वर मंदिर) थोड़े ठीक हालात में है। बाकि मंदिर खंडहर में तब्दील हो चुके हैं। श्रृंखला में सबसे बड़ा मंदिर शिव को समर्पित नजर आता है। खम्भों के सहारे निर्मित यह मंदिर भीतर से दक्षिण के मीनाक्षी मंदिर की याद दिलाता है, तो इसका बाहरी आवरण खजुराहो का रंग लिए हैं। काले व नीले पत्थर पर हाथी-घोड़े व अन्य आकृतियों की नक्काशी मंदिर की कलात्मक भव्यता को दर्शाती है। श्रृंखला का दूसरा मंदिर पहले से आकार में छोटा है। लेकिन यहां शिव एवं विष्णु की प्रधानता है। जो स्थापत्य और कलात्मक दृष्टि से काफी समृद्ध है। शेष मंदिर खंडहर में तब्दील हो चुके हैं।


यह जगह पिछले 900 सालों से वीरान है और आज भी यहाँ पर दिन में कुछ चहल – पहल रहती है पर शाम होते ही यह जगह वीरान हो जाती है , सूर्यास्त के बाद यहाँ पर कोई भी नहीं रुकता है

राजस्थान के इतिहासकारों के अनुसार किराडू शहर अपने समय में सुख सुविधाओं से युक्त एक विकसित प्रदेश था।  दूसरे प्रदेशों के लोग यहाँ पर व्यपार करने आते थे। लेकिन 12  वि शताब्दी में, जब किराडू पर परमार वंश का राज था , यह शहर वीरान हो जाता है।  आखिर ऐसा क्यों होता है, इसकी कोई पुख्ता जानकारी तो इतिहास में उपलब्ध नहीं है पर इस को लेकर एक कथा प्रचलित है जो इस प्रकार है

किराडू पर है एक साधू का श्राप :-


"कहते हैं इस शहर पर एक साधु का श्राप लगा हुआ है। करीब 900साल पहले परमार राजवंश यहां राज करता था। उन दिनों इस शहर में एक ज्ञानी साधु भी रहने आए थे। यहां पर कुछ दिन बिताने के बाद साधु देश भ्रमण पर निकले तो उन्होंने अपने साथियों को स्थानीय लोगों के सहारे छोड़ दिया। एक दिन सारे शिष्य बीमार पड़ गए और बस एक कुम्हारिन को छोड़कर अन्य किसी भी व्यक्ति ने उनकी देखभाल नहीं की। साधु जब वापिस आए तो उन्हें यह सब देखकर बहुत क्रोध आया। साधु ने कहा कि जिस स्थान पर दया भाव ही नहीं है वहां मानवजाति को भी नहीं होना चाहिए। उन्होंने संपूर्ण नगरवासियों को पत्थर बन जाने का श्राप दे दिया। जिस कुम्हारिन ने उनके शिष्यों की सेवा की थी, साधु ने उसे शाम होने से पहले यहां से चले जाने को कहा और यह भी सचेत किया कि पीछे मुड़कर न देखे।लेकिन कुछ दूर चलने के बाद कुम्हारिन ने पीछे मुड़कर देखा और वह भी पत्थर की बन गई। इस श्राप के बाद अगर शहर में शाम ढलने के पश्चात कोई रहता था तो वह पत्थर का बन जाता था। और यही कारण है कि यह शहर सूरज ढलने के साथ ही वीरान हो जाता है।"


कुछ इतिहासकारो का मत है कि किराडू मुगलों के आक्रमण के कारण वीरान हुए , लेकिन इस प्रदेश में मुगलों का आक्रमण 14 वि शताब्दी में हुआ था और किराडू 12 वि शताब्दी में ही वीरान हो गया था इसलिए इसके वीरान होने के पीछे कोई और ही कारण है।

"किराडू के मंदिरों का निर्माण"

किराडू के मंदिरों का निर्माण किसने कराया इसकी भी कोई पुख्ता जानकारी उपलब्ध नहीं है। हालाकि यहाँ पर 12 वि शताब्दी के तीन शिलालेख उपलब्ध है पर उन पर भी इनके निर्माण से सम्बंधित कोई जानकारी नहीं है। पहला शिलालेख विक्रम संवत 1209 माघ वदि 14 तदनुसार 24 जनवरी 1153 का है जो कि गुजरात के चौलुक्य कुमार पाल के समय का है। दूसरा विक्रम संवत 1218, ईस्वी 1161 का है जिसमें परमार सिंधुराज से लेकर सोमेश्वर तक की वंशावली दी गई है और तीसरा यह विक्रम संवत 1235 का है जो गुजरात के चौलुक्य राजा भीमदेव द्वितीय के सामन्त चौहान मदन ब्रह्मदेव का है। इतिहासकारों का मत है कि किराडू के मंदिरों का निर्माण 11 वि शताब्दी में हुआ था तथा इनका निर्माण परमार वंश के राजा दुलशालराज और उनके वंशजो ने किया था।


किराडू में किसी समय पांच भव्य मंदिरों कि एक श्रंखला थी। पर 19 वि शताब्दी के प्रारम्भ में आये भूकम्प से इन मंदिरों को बहुत नुक्सान पहुंचा और दूसरा सदियों से वीरान रहने के कारण इनका ठीक से रख रखाव भी नहीं हो पाया। आज इन पांच मंदिरों में से केवल विष्णु मंदिर और सोमेश्वर मंदिर ही ठीक हालत में है। सोमेश्वर मंदिर यहाँ का सबसे बड़ा मंदिर है। ऐसी मान्यता है कि विष्णु मंदिर से ही यहां के स्थापत्य कला की शुरुआत हुई थी और सोमेश्वर मंदिर को इस कला के उत्कर्ष का अंत माना जाता है।

"किराडू के मंदिरों का शिल्प"

किराडू के मंदिरों का शिल्प है अद्भुत;स्थापत्य कला के लिए मशहूर इन प्राचीन मंदिरों को देखकर ऐसा लगता है मानो शिल्प और सौंदर्य के किसी अचरज लोक में पहुंच गए हों। पत्थरों पर बनी कलाकृतियां अपनी अद्भुत और बेमिसाल अतीत की कहानियां कहती नजर आती हैं। खंडहरों में चारो ओर बने वास्तुशिल्प उस दौर के कारीगरों की कुशलता को पेश करती हैं।

नींव के पत्थर से लेकर छत के पत्थरों में कला का सौंदर्य पिरोया हुआ है। मंदिर के आलंबन में बने गजधर, अश्वधर और नरधर, नागपाश से समुद्र मंथन और स्वर्ण मृग का पीछा करते भगवान राम की बनी पत्थर की मूर्तियां ऐसे लगती हैं कि जैसे अभी बोल पड़ेगी। ऐसा लगता है मानो ये प्रतिमाएं शांत होकर भी आपको खुद के होने का एहसास करा रही है।

सोमेश्वर मंदिर भगवान् शिव को समर्पित है। भगवान शिव को समर्पित इस मंदिर की बनावट दर्शनीय है। अनेक खम्भों पर टिका यह मंदिर भीतर से दक्षिण के मीनाक्षी मंदिर की याद दिलाता है, तो इसका बाहरी आवरण खजुराहो के मंदिर का अहसास कराता है। काले व नीले पत्थर पर हाथी- घोड़े व अन्य आकृतियों की नक्काशी मंदिर की सुन्दरता में चार चांद लगाती है। मंदिर के भीतरी भाग में बना भगवान शिव का मंडप भी बेहतरीन है। किराडू शृंखला का दूसरा मंदिर भगवान विष्णु को समर्पित है। यह मंदिर सोमेश्वर मंदिर से छोटा है किन्तु स्थापत्य व कलात्मक दृष्टि से काफी समृद्ध है। इसके अतिरिक्त किराडू के अन्य 3 मंदिर हालांकि खंडहर में तब्दील हो चुके हैं, लेकिन इनके दर्शन करना भी एक सुखद अनुभव है।

यदि सरकार और पुरातत्व विभाग किराडू के विकास पर ध्यान दे तो यह जगह एक बेहतरीन पर्यटन स्थल के रूप में विकसित हो सकती है

इन्हें भी देखें

  1. "Uttar Pradesh in Statistics," Kripa Shankar, APH Publishing, 1987, ISBN 9788170240716
  2. "Political Process in Uttar Pradesh: Identity, Economic Reforms, and Governance स्क्रिप्ट त्रुटि: "webarchive" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।," Sudha Pai (editor), Centre for Political Studies, Jawaharlal Nehru University, Pearson Education India, 2007, ISBN 9788131707975
  3. साँचा:cite web
  4. साँचा:cite web