फ़ारसी साहित्य
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फारसी भाषा और साहित्य अपनी मधुरता के लिए प्रसिद्ध है। फारसी ईरान देश की भाषा है, परंतु उसका नाम फारसी इस कारण पड़ा कि फारस, जो वस्तुत: ईरान के एक प्रांत का नाम है, के निवासियों ने सबसे पहले राजनीतिक उन्नति की। इस कारण लोग सबसे पहले इसी प्रांत के निवासियों के संपर्क में आए अत: उन्होंने सारे देश का नाम 'पर्सिस' रख दिया, जिससे आजकल यूरोपीय भाषाओं में ईरान का नाम पर्शिया, पेर्स, प्रेज़ियन आदि पड़ गया।
परिचय
फारसी भाषा का संबंध भाषाओं के आर्य परिवार से है, जिससे संस्कृत, यूनानी, लैटिन, अंग्रेजी, फ्रेंच, जर्मन आदि भी संबद्ध हैं। 'ईरान' शब्द का वास्तविक रूप "आर्याना" था, जैसा यवन लेखक लिखते हैं। आर्याना से धीरे-धीरे ईरान शब्द बन गया। यवन लेखकों ने आर्याना शब्द का आधुनिक ईरान तथा अफगानिस्तान दोनों के लिए प्रयोग किया है। फारसी, आर्य भाषाओं की पूर्वी शाखाओं से संबंध रखती है। इसके प्राचीनतम नमूने पारसियों की धार्मिक पुस्तक अवेस्ता की गाथाओं (मंत्रों) में मिलते हैं। उससे कुछ कम प्राचीन भाषा वह है जो ईरान के सम्राटों द्वारा पहाड़ों, चट्टानों पर खुदाए हुए लेखों में मिलती है। परंतु इन दोनों की भाषाओं में विशेष अंतर नहीं हैं। अफ़ग़ानिस्तान की आधुनिक भाषा अर्थात् पश्तो भी उसी समय की एक ईरानी भाषा से निकली है। यह वह समय था जब ईरान और भारत को अलग हुए अधिक समय नहीं हुआ था। प्राचीन ईरानी भाषा, जिसे यूरोपीय लेखक ज़ेंद कहते हैं और संस्कृत एक-दूसरे से इतनी मिलती-जुलती तथा समीप हैं कि अवेस्ता की गाथाओं का अनुवाद वैदिक संस्कृत में शब्द-प्रति-शब्द तथा छंद हो सकता है। पढ़ने में यह भाषा पूर्णरूपेण संस्कृत के समान ज्ञात होती है। उदाहरणार्थ ईरान के सम्राट् दारा प्रथम के एक शिलालेख के एक वाक्य में कहा गया है "उता नाहम् उता गौरा फ्रजानम्" अर्थात् मैंने शत्रु की नाक व कान दोनों कटवा दिए। इसी प्रकार एक वाक्य में कहता है कि "अदम् कारम् पार्सम् उता मादम् फ़ाइरायम् हय उप माम् आह" अर्थात् मैंने पारसी तथा मीडी सेनाएँ, जो मेरे पास थीं, दोनों भेजीं। 'अदम्' वही शब्द है जो संस्कृत में 'अहं' है तथा जिसका अर्थ 'मैं' है।
यह परिवार, जिसमें दारा प्रथम आदि थे, 'हखामनिशी' कहलाता है और इसका राज्य सन् 559 ईसा पूर्व के पहले स्थापित हुआ और सन् 326 ईसा पूर्व सिकंदर द्वारा नष्ट हुआ। यवनों का राज्य भी अधिक समय तक ईरान में स्थिर नहीं रह सका और शीघ्र ही एक जाति ने, जिसे 'पार्थियन' कहते हैं, अपना अधिकार ईरान पर जमा लिया। इनको ईरानी भाषा, संस्कृति, धर्म आदि में कोई अभिरुचि नहीं थी प्रत्युत वे यूनानी भाषा तथा संस्कृति के प्रेमी थे। इनके समय में ईरानी धार्मिक पुस्तकें आदि बहुत सी नष्ट हो गईं। इनके राज्य के अंतिम काल में ईरानी राष्ट्र-धर्म में इनकी कुछ रुचि दिखलाई दी और धार्मिक ग्रंथों को एकत्र करने का कुछ प्रयास हुआ पर इसी समय देश में एक दूसरी क्रांति उत्पन्न हो गई। एक दूसरे वंश का, जिसे 'सासानी' कहते हैं, सन् 226-28 ई. में देश पर अधिकार तथा राज्य हो गया। इस वंश का राज्य सन् 642 ई. तक रहा और मुसलमानों द्वारा नष्ट कर दिया गया। इस युग की फारसी भाषा 'पहलवी' कहलाती है, जो आजकल के फारसी के बहुत समीप है पर पूर्णत: एक सी नहीं है। इस युग में पारसियों की धार्मिक पुस्तकें पुन: एकत्र की गईं तथा फारसी धर्म फिर जीवित हो उठा। उस युग की फारसी पहलवी नाम से विख्यात थी पर साथ ही साथ पहलवी एक प्रकार की लिपि का भी नाम है। इस लिपि पर सुरयानी अर्थात् प्राचीन सीरिया की भाषा का बड़ा प्रभाव था। बहुत से शब्द सुरयानी अक्षरों में लिखे जाते और फारसी में पढ़े जाते थे। उदाहरण के लिए सुरयानी अक्षरों में "लखमा" लिखते थे और उसे फारसी 'नान' अर्थात् रोटी पढ़ते थे। जैसे अंग्रेजी में एल. एस. डी. (L. S. D.) लिखते हैं और पाउंड, शिलिंग, पेंस पढ़ते हैं, क्योंकि वे क्रमशः लैटिन भाषा के शब्द लिब्राई, सालिदी तथा देनारिई हैं। इस भाषा में जो साहित्यिक कार्य हुआ है उसका पर्याप्त भाग अभी तक प्राप्त है।
धार्मिक क्षेत्र में अवेस्ता की टीका 'ज़ेंद' के नाम से लिखी गई है और फिर उसकी टीका की गई, जिसका नाम 'पज़ेद' है। अवेस्ता के और भी अनुवाद पहलवी में हुए। इनके अतिरिक्त धार्मिक विषय पर "दीनकर्त" नामक पुस्तक रची गई, जिसमें पारसियों की प्रथाओं, इतिहास, आदि पर बहुत कुछ लिखा हुआ है। "बुंदहिश्न" भी धार्मिक पुस्तक है जो 12वीं शती ईसवी में लिखी गई और जिसका अधिकांश काफी पुराना है। "दातिस्ताने दीनिक" अथवा धार्मिक उपदेश तीसरा ग्रंथ है, जिसके संबंध में वेस्ट नामक विद्वान् कहता है कि इसका अनुवाद बहुत कठिन है। "शिं्कद गूमानिक वीजार" नवीं शताब्दी ईसवी के अंत में लिखी गई। इसमें ईसाई, यहूदी, मुसलमान, धर्मों ने जो आपत्तियाँ पारसी धर्म पर की हैं उनका उत्तर है। "मैनोए खिरद" में पारसी धर्म के बारे में 62 प्रश्नों के उत्तर हैं। "अर्दविराफ" नामक एक बड़ी आकर्षक पुसतक है, जिसमें ग्रंथकर्ता के बैज़ंठ, नरक आदि में सैर करने का वर्णन है, जैसा मुसलमानों में पैंगबर साब के आकाश पर स्वर्ग नरक का भ्रमण करने का विश्वास है। इटालियन में दांते नामक कवि की इनफरनो तथा परडाइजो रचनाएँ हैं, जिनमें कवि वर्णन करता है कि किस प्रकार उसने आकाश पर जाकर स्वर्ग तथा नरक की सैर की है। "मातिगाने गुजस्तक अबालिश" को फ्रांसीसी विद्वान् ने परकज़ेंद, उसके पारसियों द्वारा किए गए फारसी अनुवाद तथा फ्रेंच अनुवाद के साथ सन् 1883 ई. में छापा है।
ये सब तो धार्मिक पुस्तकें थीं। सांसारिक विषयों पर लिखी प्रसिद्ध पुस्तकों में "जामास्पनामक" का नाम लिया जा सकता है। इसमें प्राचीन ईरान के बादशाहों की कथाएँ आदि हैं। "अंदरज़े खुसरवे कवातान" में उन आदेशों की चर्चा है, जो ईरान के प्रसिद्ध सम्राट् नौशेरवाँ ने मरते समय दिए थे। "खुदाई नामक" अर्थात् बादशाहों की किताब मुसलमानों के समय तक थी। इसका अनुवाद अरबी में भी हुआ है। "यात्कारे ज़रीरान" को "शाहनामए गस्ताश्प" भी कहते हैं। "कारनामके अरतख्शत्रे पापकान" में सासानी वंश के संस्थापक अर्दशिर की कथाएँ हैं। खुसरवे कवातान और उसके गुलाम की कहानी पर भी एक पुस्तक है। यहाँ तक पहलवी साहित्य की विशिष्ट पुस्तकों का उल्लेख हुआ। इनके अतिरिक्त कुछ और छोटी छोटी रचनाएँ हैं जिनका विवरण नहीं दिया जा रहा है।
मुसलमानों ने सन् 642 ई. में ईरान विजय किया था और उसके 200 वर्ष बाद तक जो कवि या लेखक हुए वे सब अरबी में लिखते रहे, पर इसके अनंतर राजनीतिक परिस्थिति बदली। ईरानियों की सहायता से अब्बासियों ने, जो पैगंबर साहब के चाचा अब्बास की संतानों में से थे, बनी अम्मिया को परास्त कर अपना राज्य स्थापित किया तो ईरानियों को पुन: पनपने का अवसर मिला। आरंभ में अब्बासियों के मंत्री ईरानी ही होते थे। अब्बासियों के छठे ख़लीफ़ा मामून की माता ईरानी थी, जिससे स्वभावत: उसे ईरान से प्रेम था और ईरानियों के प्रति सहानुभूति भी थी। उसने एक ईरानी को बुखारा, खुरासान आद का प्रांताध्यक्ष नियत किया। यही सामानी वंश का संस्थापक हुआ। इन्हीं सामानियों के काल में फारसी भाषा तथा साहित्य को पुनर्जीवन मिला। एक ओर सामानी वंश स्थापित हुआ और दूसरी ओर अरब शक्ति क्षीण होने लगी तथा ईरानी अपनी खोई हुई स्वतंत्रता को प्राप्त करने का पुन: प्रयत्न करने लगे। इनके साथ साथ फारसी भाषा तथा साहित्य की भी उन्नति होने लगी। सामानी युग से भी पहले कुछ कवि ईरान में हुए पर उनकी कविताएँ बहुत कम प्राप्त हैं। इसलिए हम उन्हें छोड़कर फारसी साहित्य का आरंभ सामानी युग से ही मानेंगे। इस युग तक फारसी भाषा बहुत कुछ बदल चुकी थी तथा उसपर अरबी भाषा एवं साहित्य का गंभीर प्रभाव पड़ चुका था और फारसी अरबी लिपि में लिखी जाने लगी थी। जैसे जैसे ईरानी मुसलमान होते गए वैसे वैसे पुरानी भाषा छोड़ते गए। इसी फारसी को इसलाम के बाद की फारसी, इसलामोत्तर काल की फारसी, कहा जाता है और वास्तव में यही वह फारसी है जो अपनी मधुरता तथा सौष्ठव के लिए प्रसिद्ध है।
सामानी युग (सन् 874-999 ई.)
युग फारसी भाषा के साहित्य की वास्तविक उन्नति का समय है। वस्तुत: इसी युग में फारसी के बड़े बड़े साहित्यकार उत्पन्न हुए, जिन्होंने आनेवाली पीढ़ियों के कवियों तथा लेखकों के लिए मार्ग प्रशस्त किया था। अभी तक जो फारसी साहित्य था वह कविता अर्थात् पद्य तक सीमित था। परंतु इस युग में फारसी गद्य ने भी उन्नति की।
सामानियों के समय का एक प्रसिद्ध कवि अबू शुकूर बलखी है। इसने रुबाई नामक छंद निकाला, जिसने बाद में विशेष उन्नति की। किंतु इस काल का सर्वश्रेष्ठ कवि रूदकी या रूदगी है, जो ईरान का प्रथम महाकवि है। इसका नाम अबू अब्दुल्ला जाफर बिन मुहम्मद है। इसका उपनाम रूदकी है, जो उसके ग्राम के नाम से लिया गया है। कहा जाता है कि वह अंधा था परंतु इस दोष के रहते पर भी वह सामानी बादशाह नसर बिन अहमद को पसंद था। उसकी शैली सरल तथा सुगम है, फिर भी कुछ सीमा तक उसमें "तकल्लुफ" (संकोच, आडंबर) पाया जाता है, जो बाद की फारसी कविता का विशिष्ट गुण हो गया। रूदकी गायन कला में भी प्रवीणता रखता था। इसने गजलें तथा कसीदे लिखे हैं और वामिक़ एवं एज़रा नामक एक आख्यानक काव्य भी लिखा है, जिसका मूल पहलवी का है। रूदकी की मृत्य सन् 954 ई. में हुई। सामानी युग का एक अन्य उल्लेखनीय कवि "दक़ीक़ी" है जिसके बारे में कहा जाता है कि उसने पहले शाहनामा कविताबद्ध करना आरंभ किया था किंतु उसे पूरा करने के पहले ही अपने दास के हाथों मारा गया। धर्म की दृष्ट से दकीकी ज़रायुस्त्री अर्थात् अग्निपूजक था। मदिरा तथा जरयुस्त्री धर्म की प्रशंसा में उसकी कविता प्रसिद्ध है।
गद्य में लिखित पुस्तकों में से कुछ का विवरण इस प्रकार है :
किताब अजायबुल अल् बर्रो अल् बहर या अजायबुल् बुल्दान में ईरान् के विभिन्न प्रांतों का मूल्यवान् विवरण प्राप्त है। किताब हुदूदुल् आल्सरमिन अल्मशरिक् व अल्मगरिब के रचयिता का नाम ज्ञात नहीं, जैसा उसकी भूमिका से प्रकट है। यह सन् 372 हि. की रचना है। किताबुल्अबिनिया अन हकायकुल् अदविया पुस्तक ओषधियों पर है। यह अबू मंसूर मुवफ्फिक हरवी की रचना कही जाती है। तर्जुमा तारीख तबरी के मूल अरबी ग्रंथ का लेखक मुहम्मद बिन जरीर तबरी है, जिसका अनुवाद फारसी में कई विद्वानों ने मंसूर बिन नूह के आदेश से किया था। तर्जुमा तक़सीर तबरी का भी मूल लेखक मुहम्मद बिन जरीर तबरी है और इसका भी फारसी अनुवाद मंसूर बिन नूह के आदेश से कई विद्वानों ने मिलकर किया था।
ग़जनवी युग
सामानी वंश का अंत गजनवियों के द्वारा हुआ। गजनवी वंश का संस्थापक अल्पतगी नामक एक तुर्की दास था। उसके बाद उसका दास सुबुक्तगीन गद्दी पर बैठा। इसके बाद इसका बेटा महमूद गजनवी सिंहासन पर आरूढ़ हुआ। यह विद्या तथा साहित्य का आश्रयदाता था। इसके दरबार में बड़े बड़े कवि तथा विद्वान् एकत्र थे। इस काल में कसीदा कहने की प्रथा ने बड़ी उन्नति की। बादशाह के दरबारी कवियों में उन्सुरी, फर्रुखी तथा असुज्दी बहुत प्रसिद्ध हैं, जिन्हें कसीदा कहने में श्रेय प्राप्त है। सुलतान महमूद के ही समय में फ़िरदौसी ने शाहनामा लिखा, जिसमें साठ सहस्र शेर हैं और जो संसार के बड़े युद्धकाव्यों में परिगणित हैं।
इस युग में गद्य की भी बड़ी उन्नति हुई। इस काल के प्रसिद्ध विद्वान् अलबेरुनी ने "अल्तफ्फहीम लावायेल सिनायतुल् तन्नजीम" नामक फारसी ग्रंथ ज्योतिष (नज़ूम) पर लिखा। इस ग्रंथ की विशेषता यह है कि नज़ूम की सूक्तियाँ अरबी के बदले फारसी में हैं। प्रसिद्ध हकीम तथा तत्ववेत्ता हकीम इब्र सीना ने दानिशनामा अलाई या हिकमत अलाई फारसी में लिखा और पूरा प्रयत्न किया कि आध्यात्मिक सिद्धांत फारसी में बनाएँ। इव्ने सीना की अन्य रचनाएँ भी हैं। इसी युग का प्रसिद्ध इतिहासकार अबुल्फ़ज्ल बैहिकी है जिसकी प्रसिद्ध रचना तारीखे बैहीक़ी है। इसकी शैली सुगम तथा प्रसादपूर्ण है। फारसी गद्य की अच्छी से अच्छी रचनाओं में इसकी गिनती है। "कशफुल् महजूब" फारसी में सूफी मत की पहली पुसतक है। इसका लेखक अली बिन उसमान हुज्वीरी गज़नवी है, जिसे दाता गंजबख्श भी कहते हैं। इनकी कब्र लाहौर में है।
सुलतान महमूद सन् 1030 ई. में मरा। इसके अनंतर इसका पुत्र मसऊद गद्दी पर बैठा। इसके समय में एक तुर्क कबीले ने, जिसका नाम सेल्जुक था, बादशाह को परास्त कर अपना शासन खुरासान तथा ईराक में स्थापित किया और क्रमश: बहुत उत्कर्ष को पहुँचा। अब इस काल में गजनवी तथा सेलजुकी युग साथ साथ चले। फारसी भाषा तथा साहित्य की उन्नति बराबर होती रही, प्रत्यत गजनवियों तथा सेल्जुकयों की फारसी अन्य देशों में भी फैलने लगी। इस युग के गद्यलेखकों में से निज़ामुल्मुलक तूसी विशेष रूप से उल्लेखनीय है क्योंकि यह दो सेलजुकी बादशाहों अस्पअर्सलाँ तथा मलिक शाह के 30 वर्ष तक मंत्री रहे। सासतनाम: इनकी प्रसिद्ध रचना है, जिसकी भाषा तथा लेखनशैली सरल तथा सुगम है। इस युग का एक दूसरा गद्यलेखक उन्सुरुल मआली कैकाऊस है, जो तबरिस्तान का शाह था। इसने अपने पुत्र गीलानशाह के लिए एक पुस्तक प्रस्तुत की। बड़े मनोरंजक ढंग से छोटी कहानियों द्वारा इसने सद्व्यवहार को समझाने का प्रयत्न किया है। एक अन्य उल्लेखनीय पुस्तक "तजकिरतुल औलिया" है, जिसका प्रणेता प्रसिद्ध सूफी विद्वान् फरीदुद्दीन अत्तार है। यह पुसतक जनसाधारण में सूफी मत के प्रचार की दृष्टि से लिखी गई थी। इसमें प्रसिद्ध मुसलमान सूफियों के जीवनचरित्र तथा उनके उपदेश दिए गए हैं। स्थान स्थान पर कहानियाँ भी दी गई हैं। भाषा तथा लेखनशैली आकर्षक है।
प्रसिद्ध पुस्तक "कलीलः व दमनः" का, जिसका मूल संस्कृत में है (पंचतंत्र), इसी काल में अरबी से फारसी में मसरुल्ला गजनवी ने अनुवाद किया, पर यह सरल एवं सुबोध नहीं है। इस युग की एक श्रेष्ठ रचना "चहार मकाला" है, जिसका रचयिता निज़ामी अरूज्जे समरकंदी है। यह सन् 551-52 हि. की रचना है। भाषा तथा शैली अत्यंत सरल है। इसमें हकीमों, कवियों, ज्योतिर्विदों तथा लेखकों के लिए उपदेश हैं। ग्रंथ के विषयों को किस्मों के द्वारा स्पष्ट किया गया है। इस काल की प्रसिद्ध साहित्यिक पुस्तक "मुकामात हमीदी" है, जिसका लेखक काजी हमीदुद्दीन बलखी है। यह अरबी के दो विख्यात ग्रंथों अर्थात् मुकामात अबुल्फज्ल हमदानी तथा मुकामात हरीरी की नकल है। भाषा अत्यंत क्लिष्ट तथा दुरूह है। स्थान स्थान पर अरबी के शब्द तथा शेर अधिकता से आए हैं।
इस युग में पद्य की बड़ उन्नति हुई किंतु आडंबर अधिक बढ़ गया। कसीदों में विशेषकर क्लिष्टता तथा दुरूह कल्पनाएँ दृष्टिगोचर होती हैं। कसीदा कहनेवाले कवियों में खाक़ानी का नाम ही काफी है, जिसकी मृत्यु सन् 494 हि. में हुई। इसके कसीदों में ओज तथा तड़क भड़क बहुत है पर साथ ही साथ क्लिष्टता तथा कल्पना का आडंबर भी अधिक है। इसकी प्रसिद्ध रचना "तुहफतुल्एराकीन" है। खाकानी के सिवा इस युग के प्रसिद्ध कसीदगी कवि अनवरी, मुइज्जी तथा फारयाबी हैं। इसी समय उमर खय्याम भी हुए जिनकी रुवाइयाँ प्रसिद्ध हैं और जिनका अनुवाद प्राय: सभी भाषाओं में हो चुका है। उमर खय्याम कवि नहीं, प्रत्यत ज्योतिषी तथा गणितज्ञ था जो कभी कभी कविता कर लेता था। नासिर खुसरो इस युग का प्रसिद्ध साहित्यकार था, जिसने गद्य पद्य दोनों लिखा है और अच्छा लिखा है। धर्म की दृष्टि से यह इसमाइली था, जो शीओं की एक शाखा है। इसने अपनी साहित्यिक शक्ति को अपने धार्मिक विचारों का प्रचार करने में विशेष लगाया। पद्य में इसका दीवान रूशनाईनामा तथा सआदतनामा प्रसिद्ध हैं। गद्य में जादुल्मुसाफ़िरीन तथा सफरनामा ने विशेष प्रसिद्धि प्राप्त की। सेल्जुकी युग की प्रमुख विशेषता सूफी ढंग की कविता का उत्कर्ष है। सूफी कवियों में फरीदुद्दीन अत्तार का विशिष्ट स्थान है, जिनका उल्लेख गद्य लेखकों में पहले किया जा चुका है। उनकी पद्य रचनाओं में मंतिकुल्तैर, इसरारनामा, मुसीबतनामा, इलाहीनामा आदि हैं। यह सन् 627 ह. के लगभग मुगलों द्वारा मारे गए। इस युग के ख्यातिलब्ध कवि निजामी गंजवी हैं, जिन्होंने सिकंदरनामा नामक प्रस्तुत की है। इसमें सिकंदर की कल्पित तथा अवास्तविक कहानियाँ हैं। इन्होंने पाँच मसनवियाँ खम्सा के नाम से लिखी हैं जिनके नाम मख़जनुल् इसरार, खुसरू व शीरीं, लैली व मजनूं, हफ्तपैकर या बहरामनामा हैं। निजाँमी को कहानियों को पद्यबद्ध करने में बड़ी निपुणता प्राप्त थी। इन्होंने अनेक प्रकार की नई नई उपमाओं आदि का प्रयोग किया है। निजामी का परवर्ती काल के कवियों पर विशेष प्रभाव पड़ा, जिन्होंने इनके समर्थन में रचनाएँ कीं। निजामी की मृत्यु सन् 1203 ई. में हुई।
मुगल युग (मंगोल युग)
चंगेज खाँ तुर्किस्तान के सम्राट् जलालुद्दीन का पीछा करता हुआ सिंध तक आया। उस समय हिंदुस्तान में मुसलमानों का राज्य स्थापित हो चुका था। मुगल मुसलमान नहीं थे। हिंदुस्तान के मुसलमानी राज्य का सौभाग्य था कि हिरात नगर में, जो आजकल अफगानिस्तान के अंतर्गत है, विद्रोह मच गया और चंगेज खाँ उसे दफन करने के लिए वहाँ चला गया। मुगलों (मंगोलों) ने अंत में सन् 1257 ई. में बगदाद भी विजय कर लिया और अब्बासी खलीफों का राज्य समाप्त हो गया। हिंदुस्तान का मुसलमानी राज्य मुगलों के हत्याकांड से बचा हुआ था। इस कारण हर स्थान के कवि तथा विद्वान् हिंदुस्तान आकर शरण लेने लगे। इस प्रकार हिंदुस्तान फारसी भाषा तथा साहित्य का एक प्रभावशाली केंद्र बन गया। भारतीय फारसी साहित्य का अपना एक अलग इतिहास है। फारसी के हिंदुस्तानी कवियों में से केवल अमीर खुसरो का नाम काफी है। गद्यलेखकों में काजी मिनह सिराज ने तबकाते नासिरी लिखी, जो इतिहास का एक ग्रंथ है। हिंदुस्तान में लिखे गए लुबाबुल्ललुबाब ग्रंथ का, जो फारसी के कवियों का महत्वपूर्ण तज़किरा (कवि चर्चा) है, रचयिता नूरुद्दीन मुहम्मद औफ़ी यहाँ नासिरुद्ददीन कुबचा तथा उसके अनंतर सुलतान शम्सुद्दीन एल्तुत्मिश के दरबार में रहता था।
ईरान में जो कवि तथा साहित्यकार हो गए हैं उनमें से कुछ प्रसिद्ध ये हैं : अलाउद्दीन अल मलिक जुवीनी, जिसकी मृत्यु सन् 681 हि. में हुई, इस युग का प्रसिद्ध लेखक है। इनकी पुस्तक तारीख जहाँकुशा विशद ग्रंथ है। इसमें मुगलों के व्यवहार, स्वभाव, शासनपद्धति आदि पर पूरा प्रकाश डाला गया है। इसमें भौगोलिक वृत्तांत भी आया है पर इस ग्रंथ की लेखनशैली में आडंबर भरा हुआ है। अरबी शब्दों, कहावतों तथा कुरान की आयतों का स्थान स्थान पर प्रयोग होने से जो लोग अरबी भाषा नहीं जानते वे इस पुस्तक को सरलता से पढ़ नहीं सकते और न इससे पूरा आनंद प्राप्त कर सकते हैं। गुलिस्ताँ तथा बोस्ताँ के प्रणेता शेख सादी भी इसी युग में हुए। इनकी लेखन शैली अत्यंत सुगम तथा आकर्षक है। गुलिस्ताँ गद्य में और बोस्ताँ पद्य में है। गुलिस्ताँ के सिवा गद्य में इनकी अन्य रचनाएँ भी हैं और पद्य में बोस्ताँ के सिवा इनका दीवान भी है, जिसमें कसीदे, गजलें तथा अन्य प्रकार की कविताओं के नमूने भी हैं। शेख सादी की गणना अच्छे गजल कहनेवाले कवियों में की जाती है। तारीख जहाँकुशा के समान एक अन्य पुस्तक तारीख वस्साफ़ है, जिसका लेखक शिहाबुद्दीन अब्दल्ला है। यह सन् 663 हि. में शीराज में पैदा हुआ और आठवीं शती हिजरी के मध्य तक जीवित रहा। तारीख वस्साफ की शैली आडंबर तथा अत्युक्तियों से भरी है किंतु ऐतिहासिक प्रामाणिकता की दृष्टि से अच्छी पुस्तक है। तारीखे जहाँकुशा के बाद की सभी घटनाएँ इसमें आ गई हैं। इस युग का दूसरा लेखक रशीदुद्दीन फजलुल्लाह जामेउत्तवारीख का ग्रंथकर्ता है। इसकी मृत्यु सन् 718 हि. में हुई। हम्दुल्लाह मुस्तौफी कज़वीनी इस युग का एक इतिहासकार है, इसकी पुस्तक का नाम नुज़हतुल्कुलूब है। प्रसिद्ध सूफी कवि जलालुद्दीन रूमी ने भी गद्य में पुस्तकें लिखी हैं, जिनमें से कुछ हैं-"किताब वजीया माफिया," "मजालिस" तथा "मकतूबात"। नसीरुद्दीन तूसी इस काल का प्रसिद्ध विद्वान् तथा साहित्यकार है। इसकी श्रेष्ठ रचनाओं में तर्कशास्त्र संबंधी "एसासुल् इक्तबास" हैं। "मैयारुल् अशआर" छंदशास्त्र पर है। इसकी विशिष्ट पुस्तक "इख्लाके नासिरी" बहुत प्रसिद्ध है। इसकी लेखनशैली कठिन है।
इस युग में सूफियाना कविता की बड़ी वृद्धि हुई, जिसका कारण मुगलों के आक्रमणों से हर ओर फैली हुई बरबादी थी। इससे संसार की अस्थिरता सबसे हृदयों पर जम गई। सूफी मत में संसार की नश्वरता पर बड़ा बल दिया जाता है। इस काल के सामाजिक जीवन में बहुत सी बुराइयाँ आ गई थीं, जिनपर इस समय के कवियों ने बहुत लिखा है। इस काल के बड़े कवियों में से जलालुद्दीन रूमी उल्लेख्य हैं। ये सन् 1207 ई. में बल्ख में पैदा हुए और सन् 1273 ई. में कोनैन: में, जो तुर्की में है, मरे। इनकी प्रसिद्ध मसनवी की सूफी संसार में बड़ी प्रतिष्ठा है और इसे फारसी का 'कुरान' कहा जाता है। मसनवी के सिवा इनका दीवान भी है, जो "दीवान शम्स तब्रेज" के नाम से प्रसिद्ध है।
इस युग का प्रसिद्ध हँसोड़ कवि उबेद ज़ाकानी है। कविता की ओट में अपने समय की सामाजिक कुरीतियों का अच्छा वर्णन इसने किया है और तुर्कों तथा मुगलों के आक्रमणों से उत्पन्न बुराइयों का विवरण दिया है। सलमान सावजी इस युग का विख्यात कसीदा कहनेवाला कवि है, जो बगदाद के मुगल बादशाहों की प्रशंसा किया करता था। इस युग के सबसे बड़े तथा अंतिम कवि हाफिज हैं। हाफिज ने सूफी विचारों तथा प्रेम की अच्छी कल्पनाएँ की हैं। शब्दचयन अत्यंत सुष्ठु तथा मधुर है।
तेमूरी युग
मुगलों (मंगोलों) के अनंतर तैमूर तथा उसके अनुयायी यद्यपि मुसलमान थे तथापि अत्याचार तथा नाश के कार्यों में मुगलों से कम नहीं थे। तैमूर का समय 14वीं शती ईसवी से आरंभ होता है और सफवी युग (सन् 1499 ई.) के प्रारंभ तक चलता है। इस काल में तुर्की भाषा थी। फारसी की प्रतिष्ठा घटी तथा साहित्य का भी स्तर गिर गया। बगदाद के मुगलों के अधिकार में चले जाने से अब्बासी खलीफों का अंत हो गया और अरबी का बचा बचाया सम्मान भी समाप्त हो गया। फारसी भाषा में रचनाएँ होने लगीं। यह कार्य तैमूरी युग में होता रहा और इस दृष्टि से अवश्य फारसी की उन्नति हुई। इस युग के लेखकों ने इतिहासरचना पर विशेष बल दिया। हाफ़िज़ आबरू इस युग का प्रसिद्धतम इतिहासकार कहा जा सकता है। इन्होंने संसार के साधारण इतिहास पर "जुब्दतुत्तवारीख" नामक एक बड़ा ग्रंथ लिखा है। इसी काल में दो अन्य इतिहासकार निजामी शामी तथा शरफुद्दीन अली यज़्दी हैं। इन दोनों की किताब का नाम जफरनामा है। अब्दुर्रज़्ज़ाक़ ने मतलउल सादैंन लिखा जिसमें सुलतान अब सईद के समय से सन् 1470 ई. तक को घटनाएँ दी गई हैं। मीर खोद ने ऐज़तुस्सफ़ा लिखा। संसार के आरंभ से सुलतान अबू सईद की मृत्यु (सन् 1470 ई.) तक सारे इस्लामी संसार का इतिहास इसमें दिया गया है।
तैमूरी युग के कवियों में ये उल्लेखनीय हैं-कमाल खुजंदी, जिसकी मृत्यु सन् 1400 ई. में हुई, तथा मुल्ला मुहम्मद सीरीं मगरिबी तब्रेजी, कातिबी नैशापुरी, मुईनुद्दीन कासिम अनवर (जो संभवत: सन् 1434 ई. में मरा) इस युग के दो आकर्षक कवि अबू इसहक तथा महमूद कारी हैं।
गद्य की दृष्टि से दौलतशाह समरकंदी की पुस्तक "तज़किरतुश्शोअरा" महत्वपूर्ण है। लेखक ने यह ग्रंथ उस समय के प्रसिद्ध विद्याप्रेमी मंत्री मीर शेर अली नवाई के नाम से लिखाहै। मीर शेर अली नवाई, स्वयं कवि था। तुर्की में उसने "मजाजलिसुस्नफ़ायस" नाम से कवियों का एक वृत्तसंग्रह लिखा है, जिसका फारसी में लतायफनामा के नाम से अनुवाद हुआ है। मीर शेर अली के आश्रितों में से हुसेन वाएज़ काशिफी है, जिसने प्रसिद्ध पुस्तक सहेली लिखी है। इसकी नकल में हिंदुसतान में शाहजहाँ के समय में "बहारे दानिश" लिखी गई, जो बहुत समय तक मदरसों में चलती रही। इसी लेखक की एक और रचना "इखलाके मुहसिनी" है, जिसकी लेखनशैली सरल तथा सादी है। वास्तव में यह पुस्तक, "इखलाके जलाली" के आदर्श तथा ढंग पर लिखी गई है, जिसका लेखक मुहम्मद विन असद दव्वानी है। दव्वानी सन् 1406 ई. में मरा, इससे इसका भी उल्लेख इसी काल के लेखकों में किया जा सकता है।
मीर शेर अली ने जिन्हें आश्रय दिया, उनमें मुल्ला अब्दुर्रहमान जामी थे, जो इस युग के सबसे बड़े कवि थे। यह खुरासान के जाम नामक ग्राम में सन् 1414 ई. में पैदा हुए थे। इन्होंने तीन दीवान ग़ज़लों के प्रस्तुत किए हैं, जिनमें बहुत से हाफिज़ के ढंग पर हैं। निज़ामी के खमसा की चाल पर 'हप्त औरंग' नामक सात मसनवियाँ इन्होंने लिखी हैं। इनमें विभिन्न प्रकार के विषय हैं जिसमें सदाचार, तसव्वुफ, प्रेम आदि पर तर्क वितर्क है। गद्य में इनकी प्रसिद्ध रचनाओं में से "नफ़हातुल्उंस" है, जिसमें मान्य सूफियों के वृत्त संगृहीत हैं। तसव्वुफ की महत्वपूर्ण पुस्तकों में से यह एक है। जामी की एक अन्य पुस्तक 'बहरिस्ताँ' है, जो शेख सादी के गुलिस्ताँ के ढंग पर लिखी गई है। इन्होंने अरबी व्याकरण पर "शरहे जामी" नामक पुस्तक भी लिखी है।
सफवी युग
तैमूर सन् 1405 ई. में मरा और उसके बाद उसका विस्तृत साम्राज्य विभिन्न सरदारों में बँट गया, जो आपस में युद्ध करते रहते थे। ऐसी परिस्थिति एक शती तक रही, जिसके अनंतर सफवी वंश का उदय हुआ। सफवियों ने पूरे ईरान पर शासन किया। इनसे पहले पूरे ईरान पर किसी वंश ने शासन नहीं किया था। इनके काल में ईरान ने बड़ी उन्नति की और इन्हीं के समय से शीआ धर्म ईरान में अब तक चला आता है।
इस युग के कवियों में हातिफी जामी है, जो प्रसिद्ध कवि जामी का भांजा था। उसने 'लैली व मजनूँ' तथा 'खुसरू व शीरीं' नामक मसनवियाँ तथा एक अन्य युद्ध काव्य 'तैमूरनामा' भी लिखा है, जिसमें तैमूर की विजयों का वर्णन है। फिरदौसी की बहुतों ने नकल की है पर उन सब में तैमूरनामा को अच्छी सफलता मिली। हातिफी का समकालीन कवि फ़िगानी था। यह पहले सुलतान हुसेन के दरबार में था, पर द्वेषियों के कारण तव्रेज चला गया, जहाँ इसका सम्मान हुआ और इसे "बाबाए शुअरा" (कवियों का पितामह) की पदवी मिली। फ़िग़ानी की विशेषता यह है कि इससे अपने शेरों में नई नई उपमाएँ तथा शैलियाँ प्रयुक्त कीं। ग़ज़ल में भी अच्छी कुशलता रखता था, जिससे यह 'छोटा हाफिज' कहलाता था। सन् 1516 या 19 ई. में इसकी मृत्य हुई।
जामी का शिष्य आसिफी अच्छा कसीदागो कवि था। इसके समसामयिक पहली शीराज़ी ने शाह इस्माइल सफवी की प्रशंसा में बड़े भव्य कसीदे कहे हैं। इसकी ख्याति का आधार मसनवी "सेहरे जलाल" है। इसने एक मसनवी "शमअ व परवाना" भी लिखी है, जिससे उसकी सूफी रुचि प्रकट होती है। अहली का सकालीन हिलाली था, जिसने एक दीवान, एक मसनवी "शाहो गदा" और एक काव्य "सिफातुल्" स्मारक रूप में छोड़ी है। सन् 1522 ई. में यह उजबक तुर्क बादशाह के हाथों, जो शीआ धर्म का विरोधी था, मारा गया। इसी समय का दूसरा कवि कासिमी था, जिसने एक शाहनामा प्रस्तुत किया। इसमें इसने शाह इस्माइल की विजयों का वर्णन किया है। मुहताशिम काशी इस काल का सबसे बड़ा मर्सिया कहनेवाला कवि है।
शाह अब्बास प्रथम, सफवी वंश का सबसे बड़ा शासक हुआ जो सन् 1587 ई. में गद्दी पर बैठा। वह कवियों तथा साहित्यकारों का, आश्रयदाता था। इनमें शानी तेहरानी था, जिसे उसने सोने से तौलवा दिया था। इनमें शानी तेहरानी था, जिसे उसने सोने से तौलवा दिया था। शाह अब्बास के हकीम "शिफाई" ने मसनवियाँ तथा कसीदे लिखे हैं। "जुलाली ख्वानसारी" सन् 1615 या 16 में मरा। यह शाह अब्बास के काल का प्रसिद्ध मसनवी रचयिता था। इसने सात मसनवियाँ लिखीं, जिन्हें "सुबअ सैयारा" (सात नक्षत्र) कहते हैं।
सफवी शाहों ने शीआ मत के प्रचार में बहुत ध्यान दिया था जिससे अन्य देशों के शीआ विद्वान् इनके समय में ईरान आकर बस गए। इनमें बहाउद्दीन आमिली का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इसने शाह अब्बास के आदेश पर शीआ नियमों पर "जामए अब्बासी" नामक पुसतक लिखी। शाह अब्बास की विजयों के वर्णन में "कमाली सब्ज़वारी" ने एक शाहनामा लिखा। इसंकदर बेग मुंशी ने शाह अब्बास की जीवनी "तारीखे जहाँआराए अब्बासी" में लिखी है।
इस युग में हिंदुस्तान फारसी साहित्य का अच्छा केंद्र बन गया था। जब ईरान में सफवी वंश शासन कर रहा था, हिंदुस्तान में मुगल वंश का साम्राज्य था, जो विद्या तथा साहित्य का बड़ा आश्रयदाता था। मुगलों के पास जो ऐश्वर्य तथा धन था वह ईरान के सफविरों के पास नहीं था, इससे ईरान के बहुत से कवि अपना देश त्याग कर भारत चले आए। बाबर ने प्रसिद्ध इतिहासकार मीर खोद के पौत्र खोद मीर को हिंदुस्तान बुलवाया, जहाँ इसने अपना प्रसिद्ध इतिहास "हबीबुसियर" प्रस्तुत किया। इसमें प्राचीनतम काल से आरंभ कर शाह इस्माइल की मृत्यु अर्थात् सन् 1524 ई. तक का संसार का इतिहास दिया गया है। इसकी अन्य रचनाएँ "खुलासतुल् अखबार", "दस्तूहल् वज़रार" तथा "हुमायूँनामा" हैं।
अकबर की आज्ञा से "तारीखे अलफी" लिखी गई, जिसमें इसलाम के पैंगबर की मृत्यु के अनंतर एक सहस्र वर्ष तक का इतिहास आया है। अकबर कवियों का बड़ा सत्कार करता था। सुश्फिकी बुखाराई, जो सन् 1588 ई. में मरा, गजल का सुकवि था। हुसेन सनाई मशहदी मसनवी लेखक था। ये दोनों अकबर के दरबार में थे, किंतु अकबरी दरबार का सबसे बड़ा कवि जमालुद्दीन ऊर्फी था। यह शीराज में पैदा हुआ था पर हिंदुस्तान चला आया था। उर्फी के कसीदे प्रसिद्ध हैं, जिनमें कल्पना की समर्थ उड़ानें हैं। उर्फी सन् 1590 ई. मरा। फैजी ने निज़ामी के "लैली व मजनूँ" की चाल पर एक हिंदी प्रेमगाथा को "नलदमन" के नाम से कविताबद्ध किया है। नलदमन मूलत: संस्कृत में नलदयमंती है। इसी काल में जुहूरी तेहरानी ने हाफिज के ढंग पर साकीनामा मसनवी लिखी है, जिसकी अच्छी प्रसिद्धि है।
अकबर का पुत्र जहाँगीर भी विद्वानों तथा गुणियों का आश्रयदाता था और इसने प्रसिद्ध ईरानी कवि कलीम आमिली को अपने दरबार का मिलिकुश्शोअरा (कवियों का राजा) नियत किया था। तालिब की कविता का गुण "नुजरते तश्बीह" तथा "लुत्फ़े इस्तेआर" अर्थात् उपमा तथा उत्प्रेक्षा से प्रकट है। "सायुब" जो वस्तुत: तब्रेज़ के एक परिवार से संबंधित था हिंदुस्तान तथा ईरान दोनों देशों के साहित्येतिहास से संबद्ध है। सायब, जामी के बाद ईरान का सर्वश्रेष्ठ कवि है। यह शाहजहाँ के दरबार का कवि था। हिंदुस्तान से लौटकर ईरान चला गया, जहाँ शाह अब्बास द्वितीय ने उसे मलिकुश्शुअरा की पदवी दी। सायब सार 1677 ई. में मरा। "फैयाजी" उसका समकालीन था। उसने अपने कसीदों द्वारा शीआ इमामों की प्रशंसा की और हज़रत हसन व हुसेन का मरसिया कहा है। सफवी युग के अंतकाल में अबदुल् अल्नजात इस्फहानी हुआ है, जिसकी मृत्यु सन् 1714 ई. में हुई थी। इसकी लेखनशैली घटिया तथा बाजारू है परंतु इसकी मसनवी "गुले कुश्ती" इस दोष से मुक्त है और यह अत्यंत लोकप्रिय हुई। प्राय: इसी काल में शेख अली हजीं कवि हुए, जो ईरान से हिंदुस्तान चले आए थे। प्राचीन परिपाटी के समर्थ कवियों में इनकी गणना है। इन्होंने सात मसनवियाँ तथा चार दीवान लिखे और गद्य में "तजकिरतुल् मुआसिरीन" लिखी। इसमें अपने समय के कवियों तथा विद्वानों का वृत्त दिया है और इस कारण यह एक महत्वपूर्ण ग्रंथ है। अपने व्यक्तगत वृत्तांत को "तजकिरातुल्अहवाल" में लिखा है। यह बनारस में सन् 1766 ई. में मरे।
सफवियों के युग की समाप्ति पर जब तक क़ाचार वंश का प्रभुत्व अच्छी प्रकार स्थापित नहीं हुआ, ईरान में शासन की अस्थिरता का काल रहा। इस काल में एक बड़े साहित्यिक व्यक्तित्व का दर्शन होता है, जो लुत्फ अली आज़र है। आज़र तुर्की क़बीला शामलू में से थे और इस्फहान में पैदा हुए। इनकी सबसे प्रसिद्ध रचना "आतिशकदा" है, जो सन् 1860-66 ई. में लिखी गई। इसमें आठ सौ से अधिक कवियों का वृत्त दिया गया है। आज़र का एक दीवान भी है तथा एक मसनवी "यूसुफो जुलेखा" भी इन्होंने लिखी है।
क़ाचार युग
सफवियों के अनंतर अफ़शारों ने, जिनके राज्य का संस्थापक नादिरशाह अफ़शार था, तथा जिंद वंश ने सन् 1761 ई. तक राज्य किया। इनके बाद क़ाचारियों का समय आया जो सन् 1925 ई. तक रहे। फत्ह अली शाह क़ाचार ने सन् 1797 से सन् 1816 ई. तक शासन किया। वह कवियों तथा साहित्यकारों का आश्रयदाता था। फत्ह अली "सबा" उसका मलिकुश्शोअरा था, जिसने फिरदौंसी की शैली पर शहंशाहनामा रचा। फत्ह अली शाह का मंत्री खारज: अब्दुल्वहाब निशात" अच्छा कवि था और उसने एक दीवान प्रस्तुत किया। निशात पत्रलेखन में अत्यंत कुशल था। इस युग का श्रेष्ठतम कवि मिर्जा हबीबुल्ला "क़ाआनी" था। इसने प्रशंसात्मक कसीदे तथा हजोएँ अच्छी कही हैं।
काचारियों के युग में शाह नासिरुद्दीन (सन् 1848-1896 ई.) का विशेष महत्त्व है। यह स्वयं कवि तथा गद्यलेखक था। इसका सफ़रनामा बहुत प्रसिद्ध है, जिसमें इसने अपनी यूरोप की यात्रा का वृत्तांत तथा अनुभवों का विवरण दिया है। इसकी लेखन शैली सरल तथा रोचक है। नासिरुद्दीन के राज्यकाल का प्रसिद्ध साहित्यकार रिज़ाकुली खाँ लाल:बाशी है, जो श्रेष्ठ कवि था। इसने "मजमउल् फुसहा" और "रियाजुल्आरिफ़ीन" नामक दो वृत्तसंग्रह प्रस्तुत कर फारसी साहित्य की बहुमूल्य सेवा की है। इन दोनों संग्रहों में आरंभ से लेकर अपने समय तक के कवियों के वृत्त संकलित किए गए हैं और इस दृष्टि से ये बड़े महत्वपूर्ण हैं। रिजाकुली खाँ खीवा (तुर्किस्तान) में अपने देश की ओर से राजदूत था और इसन अपने सफारतनामा नामक पुस्तक में खीवा की अपनी यात्रा का वर्णन किया है।
काचारियों के राज्यकाल में यूरोपीय जातियों का आवागमन अच्छी प्रकार आरंभ हो गया था और यूरोप की संस्कृति का प्रभाव ईरान पर पड़ने लगा था। इस कारण शैबानी काशानी की कविता में निराशावाद तथा पूर्ण यथार्थवाद का, जो उस समय के यूरोपीय साहित्यकारों में विशेष प्रिय विषय हो रहे थे, पूरा प्रभाव है। इसी काल में फारसी भाषा में नाटक (ड्रामा) लिखने की प्रथा आरंभ हुई। मिर्जा जाफ़र कराच: दागी ने तुर्की से कई नाटकों का फारसी में अनुवाद किया। नई शैली के नाटकों के प्रचार के पहले ईरान में एक प्रकार के धार्मिक खेल खेले जाते थे, जिन्हें ताज़िआ कहते थे, जिसमें कर्बला के शहीदों के कष्टों का अभिन्य किया जाता था। अब सुशिक्षित लोग इसे पसंद नहीं करते।
इसी काल में यूरोपीय शिक्षा के प्रचार से बादशाहों के शासन की निर्बलता के कारण वैधानिक शासन का आंदोलन आरंभ हुआ। जनता में नए विचारों के प्रसार के लिए समाचारपत्रों का खूब प्रचार हुआ। कवियों ने जातीय तथा शासकीय कविताएँ लिखना आरंभ किया। इस काल में गद्य की बड़ी उन्नति हुई तथा इसकी लेखन शैली इतनी सरल हो गई कि जनता उसे सहज में समझ सके, यहाँ तक कि कविता की शैली भी बदल गई। उसमें आडंबर तथा बनावट का स्थान सरलता ने ले लिया। जनता को शासन की बुराइयों से सावधान करने के लिए हाजी जैनुल् आबदीन ने एक कल्पित यात्राविवरण "सियाहतनामा" "इब्राहीम बेग" के नाम से लिखा, जो सन् 1910 में प्रकाशित हुआ। उसी साल में लेखक की मृत्यु हुई। इस काल के प्रसिद्ध कवि पूरे दाऊद, अशरफुद्दीन रुश्ती, मलिकुश्शोअरा अली अकबर देहखुदा, इश्की आदि हैं। इस काल में महिलाओं ने भी कविता तथा साहित्य में बहुत भाग लिया, जिनमें परवीन, एतसामी, परीवश, दुनिया आदि को बड़ी ख्याति मिली।
पहलवी युग
यह युग सन् 1925 ई. में आरंभ हुआ। पहलवी वंश का संस्थापक रिज़ा खाँ था, जिसने बादशाह हो जाने पर रिज़ाशाह पहलवी की उपाधि ग्रहण की। यह काल ईरान में जातीय अर्चना का है। यूरोपीय आचार विचार का प्रभाव बहुत बढ़ गया। कवियों ने कविता में यूरोपीय शैली की नकल करने का प्रयत्न किया। सादगी की प्रबलता हुई। जातीय प्रेम के कारण फारसी से अरबी शब्दों को निकालने का प्रयत्न होने लगा, यहाँ तक कि अरबी लिपि त्यागने का आंदोलन खड़ा हुआ पर वह अभी तक सफल नहीं हुआ। इस युर के कवियों में पूर दाऊद, अली असग़र हिकमत, रशीद यासिमी, आरिफ़ क़ज़वीनी, अब्दुल् अज़ीम आदि हैं, जिनमें जातीयता तथा सादगी का बल स्पष्ट है।