प्रसूति विज्ञान

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प्रसूति विज्ञान (Obstetrics) एक शल्यक विशेषज्ञता है जिसके अंतर्गत एक महिला और उसकी संतान की गर्भावस्था, प्रसव और प्रसवोपरांत काल (प्युरपेरियम) (जन्म के ठीक बाद की अवधि), के दौरान की जाने वाली देखभाल आती है। एक दाई द्वारा कराया गया प्रसव भी इसका एक गैर चिकित्सीय रूप है। आजकल लगभग सभी प्रसूति विशेषज्ञ, स्त्री-रोग विशेषज्ञ भी होते है।

परिचय

प्रसूति विज्ञान चिकित्सा विज्ञान की वह शाखा है, जिसका संबंध महिलाओं के गर्भधारण करने की अवस्था से लेकर प्रसूति अवस्था के उपरांत तक की देखभाल और चिकित्सा से है। धात्रीविद्या और स्त्रीरोग-विज्ञान (Gynaecology) एक दूसरे से इतने संबंधित है कि इनकी शिक्षा साथ साथ ही दी जाती है। वर्तमान काल में तो गर्भधारण से पूर्व ही प्रसवकाल संबंधी निदान एवं निरीक्षण की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है। प्राय: स्त्रियाँ गर्भधारण करने के पूर्व ही अपनी गर्भधारण करने की क्षमता की विस्तृत जाँच करा लेना चाहती हैं। इसी कारणवश संपूर्ण शरीर, कूल्हे की हड्डी तथा जनन संबंधी अंगों की जाँच तथा उन रोगों एवं अंगों की विरूपता की जो, गर्भस्थ शिशु के पूर्ण निर्माण में असाधारण संदेह उत्पन्न करती हैं, जानकारी आवश्यकता हो गई है। अत: अब प्रसव-कला-विशेषज्ञ का काम केवल गर्भमोचन या प्रसव कराना, ही नहीं, अपितु उसका काम स्वस्थ माँ से स्वस्थ बच्चे का जन्म किस प्रकार हो, इसके बार में सभी तरह की देखभाल और उपचार करना भी है।

गर्भधारण

सामान्यत: मासिक धर्म के प्रथम दिवस से लेकर संपूर्ण गर्भ काल 280 दिवस का माना जाता है, या दूसरे शब्दों में अंडाशय से बीजांड के निकलने के बाद 266 दिन माना गया है। गर्भधारण के साथ ही शरीर एवं मन की क्रियाओं में कुछ परिवर्तन आ जाते हैं। ये परिवर्तन गर्भधारण अवस्था से पूर्व की अवस्था से भिन्न होते हैं और दूसरी शारीरिक क्रियाओं पर दबाव डालते हैं। यदि गर्भिणी पहले से ही किसी रोग से ग्रस्त हो तो उसके अस्वस्थ अवयवों और तंत्रिकातंत्र पर यह दबाव और भी अधिक पड़ता है। गर्भधारण की अवस्था में गर्भाशय तथा स्तनों में वृद्धि होने लगती है। इन्हीं कारणों से गर्भकाल में डाक्टरी सहायता और जाँच की अत्यंत आवश्यकता होती है। गर्भवती की प्रथम जाँच के समय सामान्यत: शरीर की संपूर्ण परीक्षा तथा विशेषकर जनन अवयवों की जाँच करना आवश्यक है, जिससे यह जाना जा सके कि गर्भ है भी या नहीं और माँ किसी विशेष रोग से ग्रस्त तो नहीं है, तथा गर्भ का प्रभाव माँ पर हानिकारक या प्राणघातक तो न होगा। उपदंश, आर-एच. तत्व (Rh factor) और खून की कमी के लिए रक्त की जाँच की जाती है। रक्तचाप, मधुमेह तथा ऐल्ब्यूमेन के लिए मूत्रपरीक्षा और शरीर के वजन, में परिवर्तन इनका ज्ञान प्रारंभिक अवस्था में प्रति मास तथा आखिरी महीनों में प्रतिसप्ताह होना आवश्यक है। भोजन, व्यायाम तथ व्यक्तिगत आरोग्य के संबंध में भी गर्भिणी को परामर्श देना आवश्यक है। अंतिम मास में बच्चे की स्थिति, हलचल एवं हृदय की जाँच बराबर होनी चाहिए। इससे गर्भाशय में बच्चे के जीवित रहने का ज्ञान होता है और अनुमान हो जाता है कि प्रसव साधारण ढंग से हो जाएगा या नहीं और बच्चे की विकृत स्थिति का ज्ञान होते हुए उसके सुधार की व्यवस्था की जाती है। इससे प्रसवकाल में बहुत सी माताओं और बच्चों को हानिप्रद परिस्थितियों से बचाया जा सकता है। इसी प्रकार रोगग्रस्त गर्भिणी के रोग का उपचार भी गर्भकाल में बराबर होते रहने से न तो रोग ही बढ़ने पाता है और न गर्भ का कोई हानिकर प्रभाव माँ पर पड़ता है। जब कभी गर्भ माँ के प्राणों के लिए घातक सिद्ध होने लगता है, तब इसको खंडित करना आवश्यक हो जाता है। कुछ खास रोग गर्भिणी को ही होते हैं, जैसे समय से पूर्व प्रसव (premature labour), गर्भाशय से प्रसवपूर्व रक्तस्राव (antepartum haemorrhage), गर्भहेतुक रुधिर विषाक्तता (toxaemia of pregnancy)। इनका उचित एवं सामयिक उपचार न होने पर गर्भिणी की मृत्यु तक हो सकती है। आजकल नवीन उपचारविधियों से और खून तथा प्रतिजैविक पदार्थ देकर इस प्रकार की अनेक गर्भिणियों को मृत्यु से बचा लिया जाता है।

प्रसव

निश्चित समय पर प्रकृति के नियमानुसार गर्भाशय में आकुंचन प्रारंभ हो जाते हैं जिनके कारण शिशु तथा उससे संबंधित गर्भनाल (placenta) और झिल्लियाँ (membranes) गर्भाशय से बाहर निकलती हैं। प्रसव के तीन या चार चरण माने जाते हैं। प्रथम चरण में गर्भाशय की ग्रीवां (cervix) खुलती है, दूसरे में शिशु का बहिर्गमन तथा तीसरे में गर्भनाल और झिल्ली का निकलना और चतुर्थ चरण में गर्भाशय का संपूर्ण आकुंचन होता है जिनसे अधिक रक्तस्राव का डर नहीं रहता। प्रथम चरण में 12 से 18 घंटे तक लगते हैं, परंतु अन्य चरणों में यह समय क्रमश: कम होता जाता है। प्रसवकाल में गर्भाशय का प्रारंभिक आकुंचन लयात्मक (rhythmical) होता है। पहले तो यह आकुंचन 10 से 15 मिनट के अंतर पर होता है और अधिक वेदनापूर्ण नहीं होता, किंतु जैसे जैसे शिशु का जन्मकाल निकट आने लगता है वैसे वैसे यह अंतर कम होता जाता है और वेदना बढ़ती जाती है। प्रसव के दूसरे चरण में यह आकुंचन प्रति मिनट के अंतर से होने लगता है और एक एक मिनट तक ठहरता है। प्रसवकाल में जब यह आकुंचन बंद हो जाता, या धीमा पड़ जाता है, तब इसे गर्भाशय की शिथिलता कहते हैं। इसके परिणामस्वरूप प्रसवकाल की अवधि बढ़ जाती है। सामान्यत: बच्चे का सिर पहले निकलता है, परंतु असाधारण स्थिति में बच्चे के पैर भी पहले आ सकते हैं। कभी कभी तो गर्भाशय के मुख पर बच्चे का मुँह, कमर, कंधा इत्यादि भी पाया जाता है। इन परिस्थितियों में बच्चे को बाहर से, या शरीर के अंदर हाथ डालकर, सीधा किया जाता है या फिर शल्य चिकित्सा द्वारा बच्चे को पेट से बाहर निकालते हैं।

जुड़वाँ बच्चे

80 में एक, त्रिक बच्चे और 6,400 में एक तथ चतुष्क और पंचक बच्चे और भी कम अनुपात से होते हैं। प्रसवकाल में विलंब या तो गर्भिणी के कूल्हे की हड्डियों और बच्चे के अंगों का अनुपात ठीक न होने से, अथवा गर्भाशय की क्रिया के मंद हो जाने से, होता है। इसे कष्टप्रसव (dystokia) कहते हैं। जच्चा के कूल्हे की हड्डियों का आकार एक्स किरणों की सहायता द्वारा प्रसव के पूर्व ज्ञात किया जा सकता है। आवश्यकतानुसार सशल्य गर्भ-निकासन (Caesarian section), या संदंशिका (forceps) शल्य चिकित्सा द्वारा शिशु का जन्म कराया जा सकता है। शल्य चिकित्सा के समय होनेवाले खतरों को रक्त देकर (blood transfusion) तथा प्रतिजैविक ओषधियों की सुई देकर कम कर दिया जाता है। प्रसव के प्रथम चरण में गर्भाशय की शिथिलता के लिए शामक (sedatives) ओषधियों की मदद ली जाती है तथा दूसरे चरण में बच्चे को निकालने के लिए संदंशिका की मदद लेते हैं। रक्तस्राव, चाहे यह प्रसव के पूर्व हो चाहे बाद में गर्भाशय में गर्भनाल के अलग हो जाने से होता है तथा यह जच्चा और बच्चा दोनों के लिए प्राणघातक भी हो सकता हैं। प्रसव के तीसरे और चौथे चरण में भारी रक्तस्राव की, जो जच्चा के लिए हानिकारक होता है, संभावना रहती है।

प्रसूतिकाल

प्रसव के चतुर्थ चरण से प्रारंभ होकर जच्चा की जननेंद्रिय के गर्भकाल से पूर्व की अवस्था प्राप्त होने तक का समय प्रसूतिकाल है। साधारणत: यह छ: से लेकर आठ सप्ताह तक का होता है। गर्भाशय इस अवधि में दो पाउंड से घटकर दो औंस का हो जाता है। इस काल में गर्भाशय की रुधिर वाहिकाएँ भी नवीन रूप प्राप्त कर लेती हैं। साधारणत: मासिक धर्म भी दो से तीन मास तक नहीं होता। कभी कभी शिशु को स्तन-दुग्ध पान कराते रहने तक भी मासिक धर्म नहीं होता।

इन्हें भी देखें

साँचा:commonscat