परिसंचरण तंत्र
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परिसंचरण तंत्र या वाहिकातंत्र (circulatory system) अंगों का वह समुच्चय है जो शरीर की कोशिकाओं के बीच पोषक तत्वों का यातायात करता है। इससे रोगों से शरीर की रक्षा होती है तथा शरीर का ताप एवं pH स्थिर बना रहता है। अमिनो अम्ल, विद्युत अपघट्य, गैसें, हार्मोन, रक्त कोशिकाएँ तथा नाइट्रोजन के अपशिष्ट उत्पाद आदि परिसंचरण तंत्र द्वारा यातायात किये जाते हैं। केवल रक्त-वितरण नेटवर्क को ही कुछ लोग वाहिका तंत्र मानते हैं जबकि अन्य लोग लसीका तंत्र को भी इसी में सम्मिलित करते हैं।
मानव एवं अन्य कशेरुक प्राणियों का परिसंचरण तंत्र, "बन्द परिसंचरण तंत्र" होता है (इसका मतलब है कि रक्त कभी भी धमनियों, शिराओं, एवं केशिकाओं के जाल से बाहर नहीं जाता)। अकशेरुकों के परिसंचरण तंत्र, 'खुले परिसंचरण तंत्र' हैं। बहुत से तुच्छ (primitive animal) में परिसंचरन तंत्र होता ही नहीं। किन्तु सभी प्राणियों का लसीका तंत्र एक खुला तंत्र होता है।
वाहिकातंत्र हृदय, धमनियों तथा शिराओं के समूह का नाम है। धमनियों और शिराओं के बीच केशिकाओं का विस्तृत समूह भी इसी तंत्र का भाग है। इस तंत्र का काम शरीर के प्रत्येक भाग में रुधिर को पहुँचाना है, जिससे उसे पोषण और ऑक्सीजन प्राप्त हो सकें। इस तंत्र का केंद्र हृदय है, जो रुधिर को निरंतर पंप करता रहता है और धमनियाँ वे वाहिकाएँ हैं जिनमें होकर रुधिर अंगों में पहुँचता है तथा केशिकाओं द्वारा वितरित होता है। केशिकाओं के रुधिर से पोषण और ऑक्सीजन ऊतकों में चले जाते हैं और इस पोषण और ऑक्सीजन से विहीन रुधिर को वे शिरा में लौटाकर हृदय में लाती हैं जो उसको फुप्फुस में ऑक्सीजन लेने के लिए भेज देता है। आंत्र से अवशोषित होकर पोषक अवयव भी इस रुधिर में मिल जाते हैं और फिर से इस रुधिर को अंगों में ऑक्सीजन तथा पोषण पहुँचाने के लिए धमनियों द्वारा भेज दिया जाता है।
हृदय
हृदय (हार्ट) पेशी-ऊतक से निर्मित चार कोष्ठोंवाला खोखला अंग, वक्ष के भीतर, ऊपर, दूसरी पर्शुका और नीचे की ओर छठी पर्शुका के बीच में बाई ओर स्थित है। इसके दोनों ओर दाहिने ओर बाएँ फुप्फुस हैं। इसका आकार कुछ त्रिकोण के समान है, जिसका चौड़ा आधार ऊपर और विस्तृत निम्न धारा (lower border) नीचे की ओर स्थित है। इसपर एक दोहरा कलानिर्मित आवरण चढ़ा हुआ है, जिसका हृदयावरण (Pericardium) कहते हैं। इसकी दोनों परतों के बीच में थोड़ा स्निग्ध द्रव भरा रहता है।
हृदय भीतर से चार कोष्ठों में विभक्त है। दो कोष्ठ दाहिनी ओर और दो बाई ओर हैं। दाहिनी और बाई ओर के कोष्ठ के बीच में एक विभाजक पट (septum) हैं, जो दोनों ओर के रुधिर को मिलने नहीं देता। प्रत्येक ओर एक कोष्ठ ऊपर है, जो अलिंद (Auricle) कहलाता है और नीचे का कोष्ठ निलय (Ventricle) कहा जाता है। दाहिने निलय में ऊर्ध्व ओर अधो महाशिराओं (superior and inferior vena cava) के दो छिद्र हैं, जिनके द्वारा रुधिर लौटकर हृदय में आता है। एक बड़ा छिद्र अलिंद और निलय के बीच में हैं, जिसपर कपाटिका (valve) लगी हुई है। हृदय के संकुचन के समय अलिंद के संकुचित होने पर कपाटिकाएँ निलय की ओर खुल जाती है, जिससे रुधिर निलय में चला जाता है। दाहिने निलय में फुप्फुसी धमनी (pulmonaryartery) का भी छिद्र है। निलय के संकुचित होने पर रुधिर फुप्फुसी धमनी में होता हुआ फुप्फुसों में चला जाता है। इसी प्रकार बाई ओर भी ऊपर अलिंद है और नीचे निलय। बाएँ निलय में चार फुप्फुसी शिराओं के छिद्र हैं, जिनके द्वारा फुप्फुसों में शुद्ध हुआ (ऑक्सीजनयुक्त/शुद्ध) रुधिर लौटकर आता है और अलिंद के सकुचन करने पर वह निलय और अलिंद के बीच के छिद्र द्वारा निलय में चला जाता है। बांई ओर के इस छिद्र पर भी कपाटिका लगी हुई है। बाएँ निलय में महाधमनी (aorta) का छिद्र है, जिससे रुधिर निकलकर महाधमनी में चला जाता है और उसकी अनेक शाखाओं द्वारा सारे शरीर में संचार करके शिराओं द्वारा लौटकर फिर हृदय के दाहिने अलिंद में लौट आता है। ह्रदय के संकुचन और फैलाव के द्वारा रुधिर पर परिवहन के लिए दबाव बनाया जाता है जिसे हम ह्रदय के धड़कन द्वारा महसुस करते है इसे ही ह्रदय स्पन्द कहते है सामान्य अवस्था में यह 72 बार प्रति मिनट व्यस्क मनुष्य में होता है।
हृदय की कपाटिकाएँ
ये बड़े महत्व की संरचनाएँ हैं, जो रुधिर को केवल एक मार्ग से अग्रसर होने देती हैं, लौटने नहीं देतीं। दाहिनी ओर की कपाटिका तीन कौड़ी के समान भागों की बनी है और त्रिवलन कपाटिक (Tricuspid) कहलाती है। बाई ओर द्विवलन (bicuspid) कपाटिका है। निलय की ओर के पृष्ठ पर इनमें बारीक रज्जु के समान तंतु लगे हुए हैं, जिनके दूसरे सिरे निलय की दीवार से निकले हुए अंकुरों पर लगते हैं। ये कंडरीयरज्जु (cordaetendinae) कहलाते हैं और अंकुरों को पैपिलीय पेशी (Musculipapillares) कहा जाता है। अलिंद के संकोच से निलय में रुधिर भर जाने पर, जब वह संकुचित होता है, तो रुधिर कपर्दों के पीछे पहुँचकर उनको छिद्रों की ओर उठा देता है, जिससे उनके सिरे आपस में मिलकर छिद्र के मार्ग को रोक देते हैं और रुधिर अलिंद में नहीं लौट पाता। पैपिलीय पेशी भी संकुचित हो जाती हैं, जिससे कंडरीयरज्जु तन जाती है और कपाटिकाओं के कपर्द अलिंद में उलटने नहीं पाते। इस प्रकार के प्रबंध से रुधिर केवल एक ही दिशा में, अलिंद से निलय में, जा सकता है। फुप्फुसी और महाधमनी के छिद्रों पर भी अर्धचंद्राकार कपाटिकाएँ लगी हुई हैं।
- थिंवेसियस कपाट दांये आलिंद् मे पाया जाता है।
रुधिर परिसंचरण (Blood Circulation)
उपर्युक्त वर्णन से स्पष्ट हैं कि रुधिर महाशिराओं सक दाहिने अलिंद में आता है। वहाँ से हृत्संकुंचन के समय निलय में जाता है। निलय के संकुचित होने पर फुप्फुसी धमनी में होता हुआ फुप्फुस में चला जाता है। वहाँ ऑक्सीजन लेकर, रुधिर चार फुप्फुसी शिराओं द्वारा बाएँ अलिंद में जाता है और उसके संकुचन करने पर रुधिर बाएँ निलय में चला जाता है। बाएँ निलय में संकुचित होने पर रुधिर महाधमनी में अग्रसर हो जाता है। इस धमनी की शाखाएँ, जिनका नीचे उल्लेख किया गया है, शरीर में फैली हुई हैं। रुधिर इनके द्वारा अंगौं में संचार करके केशिकाओं (Capillaries) में होता हुआ, शिराओं द्वारा फिर हृदय के दाहिने भाग में लौट आता है और फिर वही चक्र आरंभ होता है। यही रुधिर परिसंचरण कहलाता है।
हृदय में स्वयं संकुचन करने की शक्ति है। वह प्रति मिनट 72 बार संकुचन करता है, अर्थात् एक बार संकुचन में 0.8 सेकंड लगता है। इस काल में 0.1 सेकंड तक अलिंद का संकुंचन होता हैं, शेष 0.7 सेकंड वह शिथिल अवस्था में रहता है। निलय में 0.3 सेकंड तक संकुचन होता है, शेष काल में वह शिथिल रहता है। इस प्रकार सारा हृदय 0.4 सेकंड तक शिथिलावस्था में रहता है। हृदय का संकोच प्रकुंचन (Systole) और शिथिलावस्था अनुशिथिलन (Diastole) कहलाता है।
धमनियाँ
धमनियाँ (Arteries) हृदय से शुद्ध रुधिर को ले जानेवाली लचीली नलियाँ या वाहिकाएँ हैं, जिनके द्वारा रुधिर अंगों में पहुँचता है। हृदय से निकलनेवाली मुख्य महाधमनी है, जो वक्ष में से होती हुई उदर के अंत पर पहुँचकर, दो अंतिम शाखाओं में विभक्त हो जाती हैं। महाधमनी से शाखाएँ निकलकर अंगों में चली जाती हैं। ज्यों ज्यों शाखाएँ, निकलती जाती हैं, उनका आकार छोटा होता जाता है। ये छोटे आकारवाली धमनिकाएँ (Arterioles) कहलाती हैं। धमिनयों का निकटवर्ती शाखाएँ एक दूसरे से मिल जाती हैं, जिससे यदि एक का मार्ग कट जाता है या रोग के कारण रुक जाता है, तो दूसरी धमनी से उसे विस्तार क्षेत्र में रुधिर पहुँचता रहता है। इसको शाखामिलन (anastomosis) कहते हैं।
हृदय से निकलनेवाली दो मुख्य धमनी हैं, फुफ्फुसी (pulmonary) और महाधमनी। फुप्फुसी धमनी दाहिने निलय से निकलने के पश्चात् दो शाखाओं में विभक्त हो जाती है और प्रत्येक फुफ्फुस में एक एक शाखा चली जाती है। इस धमनी का प्रयोजन ऑक्सीजन लेने के लिए रुधिर को फुफ्फुस में पहुँचाना है।
महाधमनी
हृदय के बाएँ निलय से निकलकर पहले कुछ दाहिनी ओर, तब पीछे की ओर, तत्पश्चात् मुड़ती हुई बाई ओर को चली जाती हैं, जहाँ चौथी वक्ष कशेरुका के बाएँ पार्श्व पर पहुंचकर वहाँ से सीधी नीचे को उतरती हुई वक्ष के अंत तक चली जाती है। इस प्रकार प्रारंभ में इसका जो मोड़ बनता है, वह महाधमनी चाप (Aortic arch) कहलाता है। वक्ष के अंत पर मध्यच्छदा पेशी में से छिद्र द्वारा निकलकर, सारे उदर को पार करती हुई चौथे कटि कशेरुक पर पहुँचकर, दो सामान्य श्रेणि फलक धमनियों में विभक्त होकर समाप्त हो जाती है।
शाखाएँ
वक्ष में हृद्धमनियाँ (coronary arteries) महाधमनी की प्रथम शाखाएँ हैं, जो हृदय से महाधमनी के निकलने के स्थान ही पर दोनों ओर से निकलकर हृदय पर एक घेरा सा बना देता हैं। इनकी शाखाएँ सीधी नीचे को जाकर हृत्पेशी में पोषण पहुँचाती हैं।
महाधमनी लंड के अनुप्रस्थ भाग में, दाहिनी ओर से क्रमश: अनामी (innominats), बाँई मूलग्रीवा धमनी (common carotid) और बाई अधोजत्रुक (left subclavian) शाखाएँ निकलती हैं। अनामी सबसे बड़ी शाखा है और दाहिनी ओर ऊपर ग्रीवामूल में पहुँचकर, दाहिनी मूल ग्रीवा और शिर में रुधिर पहुँचाती हैं तथा अधोजत्रुक ऊर्ध्व शाखा का रुधिर संभरण करती है।
मूलग्रीवा सीधी ग्रीवा में ऊपर जाकर अवटु उपास्थि (thyroid cartilage) की ऊर्ध्व धारा पर बाह्य और अंत:ग्रीवा शाखाओं में विभक्त हो जाती हैं।
अंत:ग्रीवा नेत्रगोलक को एक शाखा देने के पश्चात् शंखास्थि की ग्रीवा नलिका में होकर, कपाल के भीतर पहुँचकर, पुरोप्रमस्तिष्क और मध्य प्रमस्तिष्क (anterior and middle cerebral) शाखाओं में विभक्त हो जाती है, जो प्रमस्तिष्क के अग्र और मध्य भाग को रुधिर देती हैं। दोनों ओर की अंत: ग्रीवाएँ प्रमस्तिष्क के तल पर पहुँचकर आगे की ओर स्वयं एक संयोजनी शाखा द्वारा आपस में और पीछे की ओर भी दूसरी शाखा द्वारा आधार धमनी से सम्मेलन करती हैं। इस प्रकार वहाँ एक चक्र बन जाता है, जो विल्लिम का वलय कहा जाताह है।
बहिमतिका ग्रीवा के पार्श्व में होती हुई ऊपर कपोलिक ग्रंथि में पहुँचकर, अंत:दंतिका (internal maxillary) पौर उत्तल शंखास्थि (superficial temporal) शाखाओं में समाप्त हो जाती है, जो मुख की पेशियों तथा वहाँ के अन्य अवयवों एवं कपाल के पृष्ठ पर फैल जाती हैं। उसकी अन्य शाखाएँ ये हैं :
- ऊर्ध्वअवटुकी (Superthyroid) - अवटुका और स्वरयंत्र को;
- जिह्विकी (Lingual) - जिह्वा और जिह्वाधर ग्रंथि को;
- मौखिकी (Facial) - आनन को तथा अधोहन्वी ग्रंथि, टॉन्सिल आदि को;
- पश्चादिका (occipital) - उर: करर्णमूलिका पेशी और कपाल के पश्च भाग को;
- पश्चकर्णिका - कर्ण के पश्चिम पृष्ठ और पास के कपाल पृष्ठ को तथा
- अंतः हन्विकी (Internal maxillary) - चर्वण पेशियों, दाँत, नाक, ग्रसनी (pharynx), कर्णपटह और मस्तिष्क के कठिन आवरण को। सातवीं और आठवीं अंतिम शाखाएँ हैं, जिनका उल्लेख किया जा चुका है।
अधोजत्रुक
यह कक्ष में पहुंचकर कक्षीय (axillary) और बाहु में बाहुक (brachial) धमनी बन जाती है। कुहनी के सामने पहुँचकर इसकी अत: और बहि:प्रकोष्ठिक दो शाखाएँ हो जाती हैं। इससे निम्न शाखाएँ निकलती हैं :
अधोजत्रुक से - (1) कशेरुकी (vertebral), (2) अवटुकामूल धमनी, (3) अंत: स्तनिका (Internal mammary) तथा (4) ऊर्ध्व पर्शुकांतरिका (superior intercostal)।
कक्षीय भाग से - (1) वंखीय (thoracic) शाखाएँ - वाहु की पेशियों को; (2) अंसतुंड वक्षीय (ocromiothoracic); (3) अग्रपरिवेष्ठनी; (4) पश्चपरिवेष्ठनी तथा (5) अधोअंसफलकी; बाह्य भाग से, ऊर्ध्व और अधोनितल (superior and inferior profunda) और (6) पेशियों को तथा अस्थिपोषक शाखाओं को।
अन्तःप्रकोष्ठिका (Ulna)
यह कुहनी कूर्पर (elbow) के सामने से प्रारंभ होकर अग्रबाहु के भीतरी किनारे पर सीधी नीचे हथेली तक चली जाती है और वहाँ अँगूठे की ओर को मुड़कर, बहिःप्रकोष्ठिका की शाखा के साथ मिलकर उत्तल करतल चाप (superficial palmar arch) बना देती हैं, जिसमें कनिष्ठा, मध्यमा और अनामिका अंगुलियों के दोनों ओर, तर्जनी के केवल भीतरी किनारे पर, शाखाएँ चली जाती हैं। अग्रबाहु में वह सब पेशियों को तथा अस्थियों को पोषक शाखाएँ देती हैं। कुहनी के पास उससे दो आवर्तक शाखाएँ निकलती हैं।
बहिःप्रकोष्ठिका (Radial)
अग्रबाहु के बाहरी किनारे पर सीधी नीचे मणिबंध पर पहुँचकर, पीछे की ओर को घूमकर, पहली और दूसरी करतल शाखाओं के बीच से पीछे की ओर से करतल में आकर, अंत:प्रकाष्ठिका की एक शाखा से मिलकर, नितल करतल चाप (deep palmar arch) बना देती हैं, जिससे अँगूठे के दोनों ओर और तर्जनी के बहि:पृष्ठ को शाखाएँ जाती हैं। मणिबंध पर इससे दो आवर्तक शाखाएँ निकलती हैं तथा पेशियों और अस्थियों की शाखाएँ जाती हैं।
वक्ष में महाधमनी से निम्नलिखित शाखाएँ निकलती हैं : ग्रसिका (oesophageal), श्वासनलिका तथा हृदयावरणी (pericardial) शाखाएँ, जो इन अंगों में चली जाती हैं।
उदर में महाधमनी से निकलनेवाली शाखाओं में से कुछ के जोड़े हैं। स्तवक (glomerular), वृक्क (Renal) तथा शुक्रवहा शाखाओं के जोड़े हैं, जो महाधमनी के पार्श्वों से निकलते हैं। उसके सामने से उदरगुहाधमनी (coeliac) और ऊर्ध्व और अधो आंत्रयोजनी (superior and inferior mesenteric) शाखाएँ हैं। उदरगुहो धमनी से यकृत, आमाशय और प्लीहा को शाखाएँ जाती हैं। आंत्रयोजनी धमनियाँ समस्त आंत्र को तथा उदर में स्थित अन्य अंगों को रुधिर पहुँचाती हैं।
वक्ष और उदर की भित्तियों में रुधिर ले जानेवाली शाखाएँ हैं : पर्शुकांतर (intercostal), कटि (lumbar) मध्यच्छदा, (phrenic) और मध्य सैक्रल (middle sacral) हैं।
सामान्य श्रोणि फलक धमनियाँ
महाधमनी की दो अंतिम शाखाएँ हैं, जो थोड़ा ही आगे चल कर अंत: और बहिःश्रोणिफलक शाखाओं (internal and external iliac) में विभक्त हो जाती हैं। अंत:शाखा श्रोणि के भीतर जाकर, वहाँ की पेशियों तथा अंगों को शाखाएँ भेजती है। प्रजनन अंगों तथा नितंब की पेशियों में भी इसी से रुधिर जाता है। बहि:श्रोणिफलक धमनी वंक्षणी स्नायु के नीचे से निकलकर ऊरु में आ जाती है और उरुधमनी (Femoral Artery) कहलाती है, जो उरु के समने की ओर सीधी नीचे उसके पीछे की ओर चली जाती है और जानुपृष्ठ पर पहुंचकर, जानुपश्च (popliteal) धमनी कही जाती है। कुछ नीचे उतर कर यह अग्रप्रजंधिका और पश्वजंघिका (anterior tibial) धमनीं नाम की दो शाखाओं में विभक्त हो जाती है। ऊरु में उतरने के पश्चात् ही उससे नितलू (posterior tlbial) धमनीं नाम की दो शाखाओं में विभक्त हो जाती है। ऊरु में उतरने के पश्चात् ही उससे नितलू (profunda) शाखा निकलती है, जिसकी परिवेष्ठक (circumflex) और वेधक (perforating) शाखाएँ ऊरु की पेशियों में तथा अस्थि की रुधिर पहुँचाती हैं।
अग्रप्रजंधिका
यह धमनी प्रजंघिका और अनुजंघिका दोनों के बीच में नीचे को पाँव तक चली जाती है और उसके पृष्ठ पर पहुँचकर पादतल शलाकाओं के बीच अँगुलियों को शाखाएँ भेजती हैं। पश्चजंघिका जंघा के पीछे की ओर नीचे पाँव में पहुँच कर अंत: और बहि:पादतल शाखाओं (external and internal plantar arteries) में अंत हो जाता है। बहि:पादतल शाखाओं से अँगुलियों के दोनों और पादांगुलि शाखाएँ अँगुलियों के अंत तक चली जाती हैं। ये दोनों धमनियाँ पाँव की पेशियों और अस्थि तथा संधियों को रुधिर पहुँचाकर उनका पोषण करती हैं।
शिराएँ (Veins)
धमनियाँ शुद्ध रक्त को हृदय से ले जाती हैं और अंगों में सूक्ष्म कोशिकाओं में अंत हो जाती हैं, जिनके द्वारा अंग पोषण और ॲक्सीजन रुधिर से ग्रहण कर लेते हैं। इन केशिकाओं से शिराएँ प्रारंभ होती हैं, जिनके द्वारा पोषण और ऑक्सीजन से रहित रुधिर से ग्रहण कर लेते हैं। इन केशिकाओं से शिराएँ प्रारंभ होती हैं, जिनके द्वारा पोषण और ऑक्सीजन से रहित रुधिर हृदय को लौटकर आता है। यही अशुद्ध रुधिर कहा जाता है, यद्यपि उसमें कोई अशुद्धि नहीं होती। अतएव शिराएँ वे वाहिकाएँ हैं जो अशुद्ध रुधिर को हृदय में लौटाकर लाती हैं। इसका अपवाद पहले बताया जा चुका है। फुप्फुसी धमनी अशुद्ध रुधिर को हृदय में ले जाकर फुप्फुस से हृदय में ले जाती हैं।
शिराओं का प्रारंभ केशिकाओं ही से होता है। धमनी की केशिकाओं में रुधिर संचरित होकर, पोषण और ऑक्सीजन को दे चुकने के पश्चात्, केशिकाओं के उस भाग में आ जाता है जिनसे शिराएँ बनती हैं। इन केशिकाओं के मिलने से प्रथम सूक्ष्मशिराएँ (veinules) बनती हैं। ये सूक्ष्म शिराएँ मिलकर बड़े प्रकार की शिरा बनाती हैं। उनसे और बड़ी शिरा बनती हैं। इसी प्रकार मुख्य शिराएँ बन जाती है, जो अंत में महाशिराएँ बना देती हैं।
शरीर में तीन मुख्य शिरातंत्र हैं : सामान्य शिरातंत्र, फुप्फुसी शिरातंत्र और यकृति या यकृतीयनिवाहिका (hepatic or portal system) शिरातंत्र।
सामान्य शिरातंत्र
शरीर में उत्तल (superficial) और गंभीर (deep) शिराएँ होती हैं। उत्तल शिराएँ चर्म के नीचे प्राय: गंभीर प्रावरणी (deep forascia) में स्थित होती है और लसीका वाहिकाएँ तथा अधिकतर धमनियाँ भी उनके साथ होती हैं। अवतल शिराएँ सदा धमनियों के साथ रहती हैं और इस कारण वे गहरी स्थित होती है, छोटे या मध्यम आकार के साथ प्राय: उनके दोनों ओर एक एक शिरा होती है, किंतु बड़ी धमनियों के साथ केवल एक शिरा होती है। दोनों शिराएँ जहाँ तहाँ छोटी छोटी शाखाओं द्वारा आपस में जुड़ जाती हैं।
सारे शरीर में शिराओं के वही नाम हैं जो धमनियों के, जिनके साथ वे रहती हैं। कहीं कहीं नाम भिन्न हैं, जैसे गलशिरा (Jugular vein) और ग्रीवा धमनी (Carotid artery)। किंतु प्राय: ये समान ही हैं और उनकी शाखाएँ तथा वितरण भी धमनियों ही के समान है। इस कारण उनके नाग और मार्ग तथा शाखाओं का अलग वर्णन करना आवश्यक नहीं है। केवल मुख्य-मुख्य शिराओं का उल्लेख किया गया है।
- कपाल
इसकी उत्तल शिराएँ शिरचर्म के नीचे धमनियों के साथ साथ स्थित हैं और उस क्षेत्र से रक्त को एकत्र करके बहि: गलशिरा (external jugular vein) और सामान्य आननी शिराओं के द्वारा लौटाती हैं। वहि: गलशिरा गले के पार्श्व पर त्वचा के नीचे दिखाई देती है और नीच जत्रुक के नीचे पहुँचकर अधोजत्रुक शिरा में मिल जाती हैं।
कपाल के भीतर दृढ़ तानिका की दो परतों के बीच में कोटरें (blood sinuses) बने हुए हैं। प्रमस्तिष्क दात्र (falx cerebri) की ऊर्ध्व धारा पर ऊर्ध्व-अनुदैर्ध्य-कोटर (superior longitudinal sinus) और अधोधारा पर अधो-अनुदैर्ध्य-कोटर (inferior longitudinal sinus) स्थित हैं। मस्तिष्क के भीतर से रुधिर इन शिरानालों में सूक्ष्म शिराओं द्वारा आता है। ये दोनों कोटर पीछे की ओर जाकर मिल जाते हैं और वहाँ से पार्श्व कोटर (lateral sinus) द्वारा कपाल के एक छिद्र से निकलकर अंत:गलशिरा (internarl jugular vein) का प्रारंभ करते हैं। अन्य कई कोटरों का भी रुधिर पार्श्व कोटर में आता है और उससे अंत:गलशिरा में आ जाता है। इस प्रकार अंत:गलशिरा बनकर, प्रथम अंत:ग्रीवा (internal carotid) धमनी के पीछे और फिर उसके और मूलग्रीवाधमनी (common carotid) के पार्श्व में उतरती हुई नीचे अधोजत्रुक शिरा (subclavian vein) में मिलकर, अनामी (innominate) शिरा बना देती है। सामान्य आननी शिरा इसी में मिल जाती है। मुख, जिह्वा, टॉन्सिल, ग्रसनी आदि से आने वाली शिराएँ भी इसी में खुलती हैं।
- ऊर्ध्वदेह शाखा (upper extremity) की शिराएँ
हाथ के पृष्ठ पर की शिरा जालिकाएँ (plexuses) त्वचा द्वारा दिखाई देती है। इनसे तथा गहरी शिराओं का रुधिर करतल चापों में होता हुआ, बहि:प्रकोष्ठिका (radial), मध्यम और पुर: और पश्च अंत:प्रकोष्ठिक शिराओं द्वारा कुहनी के सामने पहुँचकर, मध्यम शिरा में पहुँचता है। गहरे भागों (पेशी आदि) से आनकुर शिराएँ भी इसी में मिल जाती हैं और तब वह मध्यम आधार (median basilic) शिरा और (median cephalic) मध्यम शीर्ष शिरा में विभक्त हो जाती है। एक या दो इंच आगे चलकर अंत:प्रकोष्ठिक शिराएँ आधार शिरा में और बहि:प्रकोष्ठिक शीर्ष शिराओं में जुट जाती हैं। आधार और शीर्ष शिराएँ बाहू के भीतरी और बाहरी पार्श्वों पर होती हुई ऊपर को चली जाती हैं और बाहरी धमनी की सहचारी शिराएँ (venae comites) शिराओं के मिलने के पश्चात् कक्षीय (axillary) शिरा में खुल जाती है जो स्वयं आगे चलकर अधोजत्रुक (subclavian vein) बन जाती है और अंत:गलशिरा से जुड़ने के पश्चात् अनामी शिरा बनाती है।
- निम्नशाखा (inferior extremity) की शिराएँ
पाँव के पृष्ठ पर की शिरा जालिकाओं में भीतर की ओर अंत:सक्थि और बाहर की ओर बहि:सक्थि (iniernal and external saphenous) शिराएँ आरंभ होती हैं, जो अंत: और बहि: गुल्फ के नीचे से निकलकर जंघा के भीतर की ओर तथा बीच में होती हुई ऊपर को चली जाती हैं। अंत: सक्थि शिरा जानु पर से निकलकर ऊरु प्रांत में सीधी ऊपर पहुँचकर, वंक्षणी स्नायु के नीचे गंभीर आवरणी के सक्थि छिद्र द्वारा भीतर प्रवेश करके, सामान्य ऊ डिग्री शिरा (common femoral vein) से मिल जाती है। बहि:सक्थि शिरा पाँव से जंघा के पीछे लगभग मध्य में होती हुई ऊपर जानुपश्च खात (popliteal fossa) में पहुँचकर, जानुपश्च शिरा (popliteal vein) में मिल जाती है। धमनी की सहचरी शिराओं और उत्तल तथा गंभीर ऊरु शिराओं के मिलने से सामान्य उरु शिरा बनती हैं, जो वंक्षणी स्नायु के नीचे से निकल कर उदर में पहुँचकर, बहि:श्रोणि फलक शिरा (ext. iliac) हो जाती है।
- उदर की शिराएँ
बहि:श्रोणि फलक शिरा श्रोणि में ऊपर जाकर अंत: श्रोणिफलक शिरा से मिलकर, सामान्य श्रोणिफलक शिरा (common iliac vein) बन जाती है। दोनों और की ये शिराएँ पाँचवें कटिकशेरुक पर पहुँचकर जुड़ जाती हैं और उनसे निम्न महाशिरा (inferior vena cava) बन जाती है, जो सीधी ऊपर को जाकर मध्यच्छदा पेशी के छिद्र द्वारा निकलकर वक्ष में प्रवेश करती है। यकृत के पश्चपृष्ठ पर यह एक परिखा में स्थित होती है। इसमें शुक्रवहा या डिंबग्रंथि से तथा वृक्क एवं कटि शिराएँ आती हैं।
आमाशय, समसत आंत्र, प्लीहा और अग्न्याशय से रुधिर को लानेवाली शिराएँ मिलकर प्रतिहारणी शिरा (portal vein) बनाती हैं। यह बड़े आकार की लगभग तीन इंच लंबी शिरा अधोमहाशिरा के सामने स्थित है। इसकी दोनों शाखाओं की, यकृत में पहुँचकर, अनेक शाखाएँ हो जाती है, जो अंत में केशिकाओं में विभक्त हो जाती है। शिरा की यही विशेषता है। दूसरी विशेषता उनमें कपाटिकाओं का न होना है।
- वक्ष की शिराएँ
अधोमहाशिरा मध्यच्छदा के छिद्र द्वारा वक्ष में आकर, सीधी ऊपर को जाकर, दाहिने अलिंद के नीचे के भाग में पीछे की ओर खुलती है। दोनों ओर की अधोजत्रुक और अंत:गत शिराओं के मिलने से अनामी शिराएँ बनती हैं। बाई ओर की अनामी दाहिनी से लंबी है और उरोहस्तक (mannhrium sterni) के पीछे से निकलकर पहली पर्शुका के ठीक नीचे दाहिनी अनामी से मिलकर, ऊर्ध्व महाशिरा (superior vena cava) बनाती हैं, जो नीचे जार दाहिने अलिंद में प्रर्विष्ट हो जाती है। इसमें अधोअवटु (inf. thyroid) अंत:स्तनिका (intmammary) और कशेरुकी (vertebral) शाखाएँ खुलती हैं।
अयुग्म (azygos) शिरा उदर से प्रारंभ होकर वक्ष में आकर, चौथे कशेरुक पर ऊर्ध्वमहाशिरा में खुल जाती हैं। दो ऊर्ध्व और अधो अर्धअयुग्म शिराएँ (sup. & inf hemiazygos) भी होती हैं, जिनमें ऊपर और नीचे की अंतर्पशुका शिराएँ खुलती हैं।
फुफ्फुसी शिराएँ
दाहिने फुफ्फुस से तीन और बाएँ फुफ्फुस से दो शिराएँ शुद्ध रुधिर को बाएँ अलिंद् में लाती हैं। दाहिने फुफ्फुस से आनेवाली शिराएँ प्राय: आपस में जुड़कर दो रह जाती हैं। तो भी कभी कभी तीन मिलती हैं जिससे अलिंद में एक ओर तीन और दूसरी ओर दो शिराओं के प्रवेशछिद्र होते हैं।
धमनी और शिरा की रचना
धमनी की चौड़ाई की ओर से एक सूक्ष्म काट (transverse section) बनाकर और उसको रँगकर सूक्ष्मदर्शी (microscope) द्वारा देखने से, उसमें कई स्तर दिखाई देते हैं। सब से बाहर तांतव स्तर (fibrous coat) है। उसके भीतर पीत स्थितिस्थापक तंतु का (yellow elastic) स्तर है। उसके भीतर तीसरा अनैच्छिक पेशियों का स्तर है। बड़ी धमनियों में पीत स्थितिस्थापक तंतु का स्तर कम हो जाता है और पेशीस्तर बढ़ जाता है। तंत्रिकाओं का पेशीस्तर में अंत होता है। इस स्तर के भीतर एक स्थितिस्थापक कला निर्मित स्तर (elastic fenestrated membrane) होता है और सबके भीतर अंतर्कला कोशिकाओं का एक चिकना स्तर रहता है, जिसपर रुधिर प्रवाह किया करता है।
शिराओं की भित्ति की भी ऐसी ही रचना होती है, किंतु उनकी मोटाई धमनियों की अपेक्षा कहीं कम होती हैं। मांसपेशी ऊतक विशेषतया कम होता है और जहाँ तहाँ अंतर्कला स्तर की वृद्धि से कपाटिकाएँ (valves) बन जाती हैं। कपाटिकाओं में प्राय: दो कपर्द (cusp) होते हैं, यद्यपि कहीं कहीं तीन और एक भी पाए जाते हैं, के कपर्द थेले के समान होते हैं, जो शिरा के मार्ग में इस प्रकार स्थित होते हैं कि यदि रुधिर लौटने लगता है तो इन थैलों में भर जाता है, जिससे वे फूलकर मार्ग का बंद कर देते हैं।
केशिकाएँ (Capillaries)
वाहिकातंत्र का एक महत्वपूर्ण अवयव केशिकाएँ कहलाता है। धमनियों और शिराओं के बीच में केशिकाओं का समूह स्थित होता है। हृदय से धमनियों में रुधिर आता है। ये धमनियाँ केशिकाओं में विभक्त हो जाती हैं। केशिकाओं के दूसरी ओर से शिराएँ प्रारंभ होती हैं। इस प्रकार केशिकासमूह एक झील के समान होता है, जिसमें एक ओर से नदी प्रवेश करती है और दूसरी ओर से दूसरी नदी निकलती है।
केशिकाएँ अत्यन्त सूक्ष्म वाहिकाएँ होती हैं, जिनकी भित्तियाँ अंत में केवल एक कोशिका मोटी रह जाती हैं। जब रुधिर धमनी से आकर इन केशिकाओं में प्रवाह करता है, उस समय रुधिर में उपस्थित पोषक अवयव और ऑक्सीजन का उससे अंग के ऊतकों में विसरण हो जाता है तथा अंग में होने वाली रासायनिक क्रियाओं के फलस्वरूप जो निकृष्ट या अंतिम पदार्थ बनते हैं, वे रुधिर में चले आते हैं। यहीं से शिरा का प्रारंभ हो जाता है। पहले यह रुधिर केशिकाओं में प्रवाहित होता है। केशिकाएँ आपस में जुड़कर सूक्ष्म शिरा बना देती हैं। इनके मिल जाने से कुछ बड़ी शिराएँ बनती हैं। ये जुड़कर फिर और बड़ी शिराएँ बनती हैं। इस प्रकार शिराओं का आकार बढ़ता जाता है। यहाँ तक कि महाशिरा बन जाती हैं।
हृदय के प्रकुंचन से बाएँ निलय से निकलकर जब रुधिर महाधमनी में आता है, तब उससे धमनी की भित्तियों पर दबाव पड़ता है। वे दबती हैं और थोड़ी बाहर को फैल जाती हैं। जब रुधिर वहाँ से निकल जाता है, तब भित्तियाँ फिर पूर्ववत् हो जाती हैं। यह दबाव ही रक्तचाप (blood pressure) कहलाता है। यह महाधमनी में सबसे अधिक है। ज्यों ज्यों उससे शाखाएँ निकलती जाती हैं, उनमें दब कम होती जाती है। केशिकाओं में यह बहुत कम होती है। शिराओं में उससे भी कम होती है। जितनी बड़ी शिरा होती है दाब उतनी ही कम होती है, क्योंकि उनका आकार बड़ा होता है और उनमें रक्त कम होता है। स्वस्थ युवा व्यक्ति में प्रकुंचन दाब (systolic pressure) 120-160 मिमी और अनुशिथिलन दाब (diastolic pressure) 80 से 90 मिमी. पारा होता है।
अन्य प्राणियों के वाहिका तंत्र
सन्दर्भ
बाहरी कड़ियाँ
- मानव परिसंचारण तंत्र / वाहिका तंत्र : संरचना, कार्य और तथ्य
- परिसंचरण तन्त्र
- The Circulatory System Article
- The Circulatory System, a comprehensive overview
- Berkeley Anatomy lecture on the vascular system
- NCP Cardiovascular Medicine A Journal Covering Clinical Cardiovascular Medicine