आकाश

मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से
(नीलाम्बर से अनुप्रेषित)
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
ऊँचाई से वायुयान द्वारा आकाश का दृष्य

किसी भी खगोलीय पिण्ड (जैसे धरती) के वाह्य अन्तरिक्ष का वह भाग जो उस पिण्ड के सतह से दिखाई देता है, वही आकाश (sky) है। अनेक कारणों से इसे परिभाषित करना कठिन है। दिन के प्रकाश में पृथ्वी का आकाश गहरे-नीले रंग के सतह जैसा प्रतीत होता है जो हवा के कणों द्वारा प्रकाश के प्रकीर्णन के परिणामस्वरूप घटित होता है। जबकि रात्रि में हमे धरती का आकाश तारों से भरा हुआ काले रंग का सतह जैसा जान पड़ता है।

रंग

पीला आकाश में उड़ता हुआ परिंदा

आसमान का रंग उसका अपना नहीं होता है। सूर्य से आने वाला प्रकाश जब आकाश में उपस्थित धूल इत्यादि से मिलता है तो वह छितरता जाता है। नीला रंग, अपने अपेक्षाकृत कम तरंगदैर्घ्य के कारण, अन्य रंगों की अपेक्षा अधिक छितरता है।[१] इसलिए आकाश का रंग नीला दिखता है पर यह हर बार नीला हो ज़रूरी नहीं कई बार यह पीला या लाल रंग का भी दिखाई देता है।[२]

अन्य नाम

आकाश के अन्य नाम है:

  • नभ
  • आसमान
  • अम्बर
  • व्योम
  • निलाम्बर
  • गगन

भारतीय धर्म-दर्शन में आकाश

प्राचीन भारतीय धर्म ग्रंथों के अनुसार सृष्टि का निर्माण पांच तत्वों से हुआ माना जाता है जिनमें कि एक आकाश है (बाकी चार हैं-पृथ्वी, वायु, जल, अग्नि)। यदि तुलना की जाए तो भारतीय धर्म-दर्शन में वर्णित आकाश की अवधारणा वर्तमान वैज्ञानिक ज्ञान और शब्दावली के एक अयाम "स्थान" (स्पेस) के निकट प्रतीत होता है। इसका एक उदाहरण अष्टावक्र गीता का निम्न श्लोक हैं-

एकं सर्वगतं व्योम बहिरन्तर्यथा घटे | नित्यं निरन्तरं ब्रह्म सर्वभूतगणे तथा ||१- २०||[३]

जिस प्रकार एक ही सर्वव्यापक आकाश घड़े के अंदर व बाहर है, उसी प्रकार सदा स्थिर (सदा विद्यमान) व सदा गतिमान (सदा रहने वाला) ब्रह्म सभी भूतों (all existence) में है।

तज्ज्ञस्य पुण्यपापाभ्यां स्पर्शो ह्यन्तर्न जायते | न ह्याकाशस्य धूमेन दृश्यमानापि संगतिः ||४- ३||[४]

उसे (ब्रह्म को) जानने वाला अपने अंतः में पाप व पुण्य को स्पर्श नहीं करता, यह ऐसा ही है जैसे ऊपर से कितना ही प्रतीत हो किंतु वास्तव में धुआं कभी आकाश को स्पर्श नहीं करता।

सन्दर्भ

  1. स्क्रिप्ट त्रुटि: "citation/CS1" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।
  2. स्क्रिप्ट त्रुटि: "citation/CS1" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।
  3. अष्टावक्र गीता, भाग १, श्लोक-२०
  4. अष्टावक्र गीता, भाग ४, श्लोक-३