दार्दी भाषाएँ

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दार्दी या दार्दिक भाषाएँ (ज़बान दार्दी) हिन्द-आर्य भाषाओं की एक उपशाखा है जिसकी सबसे जानी-मानी भाषा कश्मीरी है। दार्दी भाषाएँ उत्तरी पाकिस्तान, उत्तर-पूर्वी अफ़ग़ानिस्तान और भारत के जम्मू-कश्मीर राज्य में बोली जातीं हैं।[१] सारी दार्दी भाषाओँ में कश्मीरी का ही रुतबा सबसे ऊँचा है क्योंकि इसका अपना प्रचलित साहित्य है और इसे भारत की एक आधिकारिक भाषा होने का मान भी प्राप्त है।[१][२][३] पाकिस्तान के चित्राल ज़िले की खोवार भाषा, उत्तरी कश्मीर में बोली जाने वाली शीना भाषा और अफ़ग़ानिस्तान के पूर्वी नूरिस्तान, नंगरहार और कुनर राज्यों में बोली जाने वाली पाशाई भाषा अन्य मशहूर दार्दी भाषाएँ हैं।

दार्दी भाषाओं का प्रभाव

इसमें कोई दो राय नहीं हैं कि लगभग सभी दार्दी भाषाओं पर संस्कृत, फ़ारसी, पंजाबी, हिंदी-उर्दू इत्यादि का प्रभाव पड़ा है और इनके कई शब्द दार्दी भाषाओं में इस्तेमाल होते हैं। लेकिन बहुत भाषावैज्ञानिकों का मानना है के दार्दी भाषाओं ने भी ग़ैर-दार्दी हिंदी-आर्य भाषाओं पर अपनी छाप छोड़ी है। यह मानना है के पंजाबी, उत्तराखंड की कुछ बोलियाँ और कुछ और भाषाओं पर दार्दी का प्रभाव नज़र आता है।[४][५][६] हालांकि इस पर विवाद जारी है, लेकिन एक धारणा यह भी है कि प्राचीन काल में दार्दी एक बहुत बड़े क्षेत्र में बोली जाती थी जो सिन्धु नदी के इर्द-गिर्द (सिंध से कश्मीर तक) और फिर हिमाचल और उत्तराखंड में फैला हुआ था।

दार्दी भाषाओं की विशेषताएँ

दार्दी भाषाओं की कुछ ख़ास चीजें हैं जिनसे समूचे हिंद-आर्य भाषा परिवार में उनकी पहचान बनती है, जैसे की महाप्राण व्यंजनों का उच्चारण अल्पप्राण व्यंजनों जैसा होता है (उदाहरणतः 'भ' को 'ब' की तरह उच्चारित किया जाता है).

महाप्राण की जगह अल्पप्राण व्यंजन

ज़्यादातर हिद-आर्य भाषाओं में महाप्राण व्यंजनों को वायु-प्रवाह के साथ बोला जाता है, जैसे की महाप्राण व्यंजन 'ख' को मुंह से वायु-प्रवाह से बोला जाता है जबकि उसके मिलते हुए अल्पप्राण व्यंजन 'क' को बहुत कम वायु-प्रवाह के साथ बोला जाता है। ऐसा दार्दिक भाषाओं में नहीं है। इन भाषाओं में वायु-प्रवाह की बजाय सुर बदल के अल्पप्राण और महाप्राण व्यंजनों में अंतर किया जाता है। मिसाल के तौर पर जहाँ संस्कृत में 'भूमि' शब्द है वहाँ खोवार भाषा में 'बुउम' है जिसमे आवाज़ मोटे स्वर से पतले स्वर की ओर जाती है (यानि मर्दाना स्वर से औरताना स्वर के तरफ़)।[७][८] इसी तरह से जहाँ हिंदी में महाप्राणी 'ध' से 'धुआँ' होता है वहाँ पाशाई में अल्पप्राणी 'द' से 'दुउम' होता है। संस्कृत के 'दुग्ध' ओर हिंदी के 'दूध' के स्थान पर कश्मीरी में 'दोद' होता है।[७][८] पश्चिमी पहाड़ी ओर पंजाबी में भी इसी तरह महाप्राण के स्थान पर स्वर-बदलाव देखने को मिलता है, जैसे की पंजाबी में हिंदी के 'घर' की जगह स्वर बदलता हुआ शब्द 'कर' होता है।[७]

'र' शब्दांश स्थानांतरण

दार्दी भाषाओं में अक्सर शब्दांश स्थानांतरण हो जाता है, जिसमे एक ही शब्द के 'र' के वर्ण के इर्द-गिर्द कोई स्वर अपने स्थान में फेर-बदल कर लेता है। यह दार्दी भाषाओं में प्राचीनकाल से होता आ रहा है और गांधार क्षेत्र में (जहाँ दार्दी भाषाएँ बोलीं जातीं थीं) सम्राट अशोक के ज़माने की शिलाओं में भी यह देखा जा सकता है, जो २६९ ई॰पु॰ से २३१ ई॰पु॰ में खड़ी की गई थीं। सम्राट अशोक की एक उपाधि 'प्रियदर्शी' थी - लेकिन इन शिलाओं पर अक्सर 'प्रियद्रशी' देखने को मिलता है क्योंकि शब्दांश स्थानांतरण के कारण 'दर्श' का 'द्रश' बन गया। इसी तरह इन शिलाओं पर 'धर्म' के स्थान पर 'ध्रम' मिलता है।[४][९] आधुनिक काल में संस्कृत के 'दीर्घ' (यानि लम्बा) शब्द की झलक कलश भाषाओँ के 'द्रीग' शब्द में मिलती है।[९] पालूला भाषा में संस्कृत का 'दुर्बल' (यानि कमज़ोर) बदल कर 'द्रुबल' बन जाता है और संस्कृत का 'भुर्ज' (जो एक पहाड़ी क्षेत्र में उगने वाले पेड़ का नाम है) बदल कर 'बर्हुज' बन जाता है।[९] संस्कृत का 'दरिद्र' कश्मीरी का 'द्रोलिद' बन जाता है और 'कर्म' कश्मीरी में 'क्रम' बन जाता है।[९] दार्दी भाषाओं की यह प्रवृति पंजाबी और पश्चिमी पहाड़ी भाषाओं में भी कुछ हद तक देखी जा सकती है। जहाँ फ़ारसी में पेड़ को 'दरख़्त' कहते हैं वहाँ पंजाबी में यह 'द्रख़त' हो जाता है।[४][१०]

वाक्य में क्रिया का स्थान

अधिकतर हिंद-ईरानी भाषाओं में क्रिया वाक्य के अंत में आती है। लेकिन दार्दिक भाषाओँ में क्रिया शब्द वाक्य के बीच में आते हैं। इस मामले में दार्दी भाषाएँ अंग्रेज़ी की तरह होतीं हैं।[११]

भाषा
अंग्रेज़ी दिस इज़ अ हार्स वी विल गो टु टोक्यो
कश्मीरी (दार्दिक) यि छु अख गुड़ अस गछव टोक्यो
संस्कृत (हिंद-ईरानी) एषः एकः अश्व अस्ति वयं टोक्यो गच्छामः
फ़ारसी (हिंद-ईरानी) ईन यक अस्ब अस्त मा ब तोक्यो ख़ाहेम रफ़्त
हिंदी-उर्दू (हिंद-ईरानी) यह एक घोड़ा है हम टोक्यो जाएंगे
पंजाबी (हिंद-ईरानी) एह इक्क *घो*ड़ा असीं टोक्यो जावांगे

ऊपर लिखे हुए वाक्यों में क्रिया को गाढ़े अक्षरों में लिखा गया है। जैसा की स्पष्ट है, लगभग सारी हिंद-ईरानी भाषाओं में क्रिया वाक्य के अंत में आती है, लेकिन दार्दिक इस नियम को भंग करती है और अंग्रेज़ी की तरह क्रिया को संज्ञा के बाद डालती है। ऐसी भाषाओं को जो क्रिया संज्ञा के बाद डालती हों "क्रिया द्वितीय भाषाएँ" कहा जाता है।

दार्दी भाषाओं की सूची

इन्हें भी देखें

सन्दर्भ

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