डिप्थीरिया
डिप्थीरिया वर्गीकरण व बाहरी संसाधन | |
डिप्थीरिया में सूजा हुआ गला होने के कारण कई बार अंग्रेज़ी में इसे सांड गला (बुल नेक) भी कहा जाता है | |
आईसीडी-१० | A30. |
आईसीडी-९ | 032 |
रोग डाटाबेस | 3122 |
मेडलाइन+ | 001608 |
ई-मेडिसिन | emerg/138 साँचा:eMedicine2 साँचा:eMedicine2 साँचा:eMedicine2 |
एमईएसएच | D004165 |
रोहिणी या डिप्थीरिया (Diphtheria) उग्र संक्रामक रोग है, जो 2 से लेकर 10 वर्ष तक की आयु के बालकों को अधिक होता है, यद्यपि सभी आयुवालों को यह रोग हो सकता है। इसका उद्भव काल (incubation period) दो से लेकर चार दिन तक का है। रोग प्राय: गले में होता है और टॉन्सिल भी आक्रांत होते हैं। स्वरयंत्र, नासिका, नेत्र तथा बाह्य जननेंद्रिय भी आक्रांत हो सकती हैं। यह वास्तव में स्थानिक रोग है, किंतु जीवाणु द्वारा उत्पन्न हुए जीवविष के शरीर में व्याप्त होने से रुधिर विषाक्तता (Toxemia) के लक्षण प्रकट हो जाते हैं। ज्वर, अरुचि, सिर तथा शरीर में पीड़ा आदि जीवविष के ही परिणाम होते हैं। इनका विशेष हानिकारक प्रभाव हृदय पर पड़ता है। कुछ रोगियों में इनके कारण हृदयविराम (heart failure) से मृत्यु हो जाती है।
कारण
रोग का कारण कोराइन बैक्टीरियम डिपथीरी (Coryn bacterium diphtheriae) नामक जीवाणु होता है। यह प्राय: बिंदुसंक्रमण से तथा बालकों द्वारा एक दूसरे की पेंसिल, लेखनी आदि वस्तुओं को मुँह में रख लेने से गले की श्लैष्मिक कला में प्रविष्ट होकर वहाँ रोग उत्पन्न कर देता है, जिसके कारण उत्पन्न हुए स्त्राव में फाइब्रिन अधिक होने से स्त्राव वहाँ पर झिल्ली के रूप में एकत्र हो जाता है। उसका रंग मटमैला सा होता है और उसके पास श्लेष्मिक कला में शोथ होता है। झिल्ली नीचे मांस से चिपकी होती है और कठिनाई से पृथक् की जा सकती है। यह जीवाणु तीन प्रकार का होता है, उग्र (gravis), मध्यम (intermedians) और मृदु (mitis)। प्रथम प्रकार अत्युग्र, दूसरा उग्र और तीसरा मृदु रूप का रोग उत्पन्न करता है, जिसमें कभी कभी झिल्ली तक नहीं बनती। केवल गलशाथ के लक्षण होते हैं।
कोरिनेबेक्टीरियम डिप्थेरिया और कफ के माध्यम से एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में यह फैलता है। इसके अतिरिक्त जीवाणु एक प्रकार के जीव विष को जन्म देता है जिससे हृदय की पेशियों में सूजन आ सकती है अथवा स्नायु तंत्र की खराबी हो सकती है।
लक्षण
- नाक का बहना
- गले में दर्द
- बुखार
- बीमार महसूस करना
झिल्ली ही रोग का विशेष लक्षण है। उपयुक्त चिकित्सा तत्काल प्रारंभ न करने से वह गले में चारों ओर से उत्पन्न होकर श्वास मार्ग तक को रोक सकती है, जिससे रोगी को श्वासकष्ट हो जाता है और फुफ्फुसों में वायु नहीं पहुँच पाती। गले में शोथ होता है। टाँन्सिल भी सूज जाते हैं। झिल्ली गले में न बनकर उसके नीचे श्वासनली (trachea) में बन सकती है। अग्रनासिका के आक्रांत होने पर नासास्राव विशेषतया अधिक होता है, किंतु श्वासकष्ट नहीं होता। नेत्र तथा जननेंद्रियों के रोग में उनपर झिल्ली एकत्र हो जाती है।
रोगी को ज्वर 100°F-102°F तक रहता है। रुधिर विषाक्तता के कारण रोगी क्लांत दिखाई देता है। रोग की उग्रता उसके चेहरे तथा साधारण दशा से झलक जाती है। सिरदर्द, अरुचि, कब्ज आदि बने रहते हैं।
डिपथीरिया के जीवविष हृतपेशीस्तर (myocardium) पर अपकर्षण (degeneration) प्रभाव डालते हैं। हृदय के दुर्बल हो जाने से उसके स्पंदन दुर्बल हो जाते हैं, जिससे शरीर का रक्तचाप कम हो जाता है। जितना हृद्दौर्बल्य बढ़ता है, रोगी के जीवन की आशा उतनी ही कम हो जाती है।
तंत्रिकातंत्र पर भी विषों का प्रभाव होता है। गले के भीतर की पेशियों का स्तंभ प्राय: 10वें या 12वें दिन पर दिखाई पड़ता है, जो पहले वहाँ की दुर्बलता से आरंभ होता है। रोगी का शब्द अनुनासिक हो जाता है। निगलने पर जल या अन्य पेय नाक से लौट आते हैं। नेत्र की पेशियों की क्रिया का ह्रास हो सकता है, जिससे समायोजन (accommodation) क्रिया न होने से रोगी को छोटे अक्षर स्पष्ट नहीं दिखाई देते। आगे चलकर दो या तीन सप्ताह के पश्चात् और कभी कभी इससे पहले ही बहुतंत्रिकाशोथ (polyneuritis) के लक्षण प्रकट हो जाते हैं।
कभी-कभी स्वरयंत्र आक्रांत हो जाता है, जिससे श्वासावरोध का डर रहता है। ऐसी दशा में तत्काल श्वासनली का वेधन (tracheotomy) करके श्वासमार्ग बनाना पड़ता है।
रोग का निदान
यह प्राय: कठिन नहीं होता। रोग का संदेह होने पर यदि झिल्ली न दिखाई दे तो गले के स्त्राव की संवर्धन (culture) परीक्षाएँ आवश्यक हैं। शिक जाँच (Schick test) द्वारा रोग के वाहकों को पहचानने से रोग को रोकने में बहुत सहायता मिलती है।
ग्रसनी शोथ (Phyaryngitis), टॉन्सिल शोथ (Tonsillitis), मुँह तथा गले में फंगस संक्रमण आदि रोगों से डिपथीरिया को पहचानना आवश्यक है।
चिकित्सा
प्रतिजीव विषयुक्त सीरम, जो प्राय: रोगक्षमीकृत घोड़ों के रक्त से तैयार किया जाता है, इस रोग की प्रथम औषधि है, किंतु चिकित्सक को पहले यह निश्चय कर लेना चाहिए कि रोगी सीरम के प्रति असहिष्णु तो नहीं है, क्योंकि कुछ रोगी सीरम को सहन नहीं कर पाते, विशेषकर वे रोगी जिनको पहले सीरम के इंजेक्शन लगे हों। इस कारण इंजेक्शन देने से पूर्व पूछ लेना चाहिए। यदि इंजेक्शन नहीं लगे हैं तो विशेष डर नहीं है। यदि लगे हों, तो असहिष्णुता की जाँच करना आवश्यक है। यह दशा तीव्रग्रहिता (anaphylaxis) कहलाती है। इसमें मृत्यु तक हो सकती है।
चिकित्सा की सफलता शीघ्रातिशीघ्र चिकित्सा प्रारंभ करने पर निर्भर करती है। रोग का संदेह होते ही चिकित्सा आरंभ कर देना आवश्यक है। अत्युग्र दशाओं में और विशेषकर जब रोग आरंभ हुए कुछ समय बीत चुका हो तो रोगी की जीवनरक्षा के लिए 80,000 मात्रक (unit) से लेकर दो लाख मात्रक तक प्रतिजीव विषयुक्त सीरम देना आवश्यक है। साधारण उग्र दशाओं में 16 से 32 हजार मात्रक पर्याप्त हैं। मृदु रोग में पाँच से लेकर 15 हजार मात्रक तक पर्याप्त है। उग्र दशाओं में कम से कम आधी मात्रा शिरा द्वारा देनी चाहिए तथा शेष को नितंबप्रांत में अंतर्पेशी इंजेक्शन से देना चाहिए।
प्रोकेन बेंज़ाइल पेनिसिलिन छह लाख मात्रक भी (जिसमें एक लाख साधारण बेंज़ाइल पेनिसिलिन संमिलित हो) पाँच दिन तक प्रतिदिन एक बार दिया जाए। रोग के जीवाणुओं पर इसकी घातक क्रिया होती है। ऐराइथोमाइसीन के भी संतोषजनक परिणाम हुए हैं।
रोगमुक्ति के पश्चात् भी हृदय की रक्षा के लिए कम से कम तीन सप्ताह तक पूर्ण विश्राम आवश्यक है। उग्र रोग के पश्चात् रोगी तीन मास तक काम करने के योग्य नहीं रहता।
प्रतिषेध (रोकथाम)
गले की बीमारी (डिप्थीरिया) से सुरक्षा के लिए बच्चों को डीपीटी का टीका लगवाएं। विवरण के लिए शिशु असंक्रमीकरण की अनुसूची देखें।
किसी बच्चे को गले की बीमारी (डिप्थीरिया) की संभावना होने पर तत्काल डॉक्टर से परामर्श करें, क्योंकि इससे जीवनभर का खतरा होता है। यह बहुत आवश्यक है और सदा सफल होता है। आजकल यह क्षमीकरण (वैक्सीनेशन) शैशवावस्था में ही प्रारंभ कर दिया जाता है। 10 से 12 मास की आयु में डिपथीरिया टॉक्साइड (toxoid) का प्रथम इंजेक्शन, 15-18 मास पर दूसरा, फिर स्कूल प्रवेश के समय अंतिम इंजेक्शन आठ या नौ वर्ष की आयु में दिया जाता है। इससे बालक में जीवन पर्यंत रोगक्षमता बनी रहती है।
सहिष्णुता की जाँच कर लेना बहुत आवश्यक होता है, जिसकी सीरम के इंजेक्शन लग चुके हों उनमें यह जाँच करके इंजेक्शन दिए जाएँ। डिपथीरिया प्रतिसीरम (antiserum) के 10 में एक शक्ति के विलयन के 002 मिलीमीटर अधस्त्वक इंजेक्शन देने के आधे घंटे के पश्चात् तक यदि रोगी में कोई विशेष लक्षण नहीं होते तो 002 मिलीमीटर (बिना घुले हुए) सीरम का फिर इंजेक्शन दिया जाता है। इससे भी यदि लक्षण न उत्पन्न हो तो आधे घंटे बाद पूरी मात्रा दी जा सकती है। लक्षणों के प्रकट होने पर सीरम देने का विचार छोड़कर पेनिसिलिन तथा अन्य प्रतिजीव विषों द्वारा चिकित्सा करनी पड़ती है।
सन्दर्भ