गोवर्धनराम माधवराम त्रिपाठी

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गोवर्धनराम माधवराम त्रिपाठी

गोवर्धनराम माधवराम त्रिपाठी (1855-1907 ई.) का व्यक्तित्व आधुनिक गुजराती साहित्य में कथाकार, कवि, चिंतक, विवेचक, चरित्रलेखक तथा इतिहासकार इत्यादि अनेक रूपों में मान्य है; किंतु उनको सर्वाधिक प्रतिष्ठा द्वितीय उत्थान के सर्वश्रेष्ठ कथाकार के रूप में ही प्राप्त हुई है। जिस प्रकार आधुनिक गुजराती साहित्य की पुरानी पीढ़ी के अग्रणी नर्मद माने जाते हैं उसी प्रकार उनके बाद की पीढ़ी का नेतृत्व गोवर्धनराम के द्वारा हुआ। संस्कृत साहित्य के गंभीर अनुशीलन तथा रामकृष्ण परमहंस और विवेकानंद आदि विभूतियों के विचारों के प्रभाव से उनके हृदय में प्राचीन भारतीय आर्य संस्कृति के पुनरुत्थान की तीव्र भावना जाग्रत हुई। उनका अधिकांश रचनात्मक साहित्य मूलत: इसी भावना से संबद्ध एवं उद्भूत है।

जीवनी

गोवर्धनराम की प्रारंभिक शिक्षा दीक्षा बंबई तथा नडियाद में संपन्न हुई। 1805 ई. में उन्होंने एल्फिन्स्टन कॉलेज से बी.ए. की उपाधि प्राप्त की। शिक्षा समाप्त होते ही उनकी प्रवृति तत्वचिंतन और सामाजिक कल्याण की ओर उन्मुख हुई।

साहित्यिक कृतित्व

"सरस्वतीचंद्र" उनकी सर्वप्रमुख साहित्यिक कृति है। कथा के क्षेत्र में इसे "गुजराती साहित्य का सर्वोच्च कीर्तिशिखर" कहा गया है। आचार्य आनंदशंकर बापूभाई ध्रुव ने इसकी गरिमा और भावसमृद्धि को लक्षित करते हुए इसे "सरस्वतीचंद्र पुराण" की संज्ञा प्रदान की थी जो इसकी लोकप्रियता तथा कल्पनाबहुलता को देखते हुए सर्वथा उपयुक्त प्रतीत होती है।

"सरस्वतीचंद्र" की कथा चार भागों में समाप्त होती है। प्रथम भाग में रत्ननगरी के प्रधान विद्याचतुर की सुंदरी कन्या कुमुद और विद्यानुरागी एवं तत्वचिंतक सरस्वतीचंद्र के पारस्परिक आकर्षण की प्रारंभिग मनोदशा का चित्रण है। नायक की यह मान्यता कि "स्त्री मां पुरुषना पुरुषार्थनी समाप्ति थती नथी" वस्तुत: लेखक के उदात्त दृष्टिकोण की परिचायक है और आगामी भागों की कथा का विकास प्राय: इसी सूत्रवाक्य से प्रति फलित होता है।

द्वितीय भाग में व्यक्ति और परिवार के संबंधों का चित्रण भारतीय दृष्टिकोण से किया गया है तथा तृतीय में कर्मक्षेत्र के विस्तार के साथ प्राच्य और पाश्चात्य् संस्कारों का संघर्ष प्रदर्शित है। चतुर्थ भाग में लोककल्याण की भावना से उद्भूत "कल्याणग्राम" की स्थापना की एक आदर्श योजना के साथ कथा समाप्त होती है। बीच-बीच में साधु सतों के प्रसंगों को समाविष्ट करके तथा नायक की प्रवत्ति को आद्योपांत वैराग्य एवं पारमार्थिक कल्याण की ओर अन्मुख चित्रित करके लेखक ने अपने सांस्कृतिक दृष्टिकोण को सफलतापूर्वक साहित्यिक अभिव्यक्ति प्रदान की है।

"स्नेहामुद्रा" गोवर्धनराम की ऊर्मिप्रधान भावगीतियों का, संस्कृतनिष्ठ शैली में लिखित, एक विशिष्ठ कवितासंग्रह है जो सन् 18889 में प्रकाशित हुआ था। इसमें समीक्षकों ने मानवीय, आध्यात्मिक एवे प्रकृतिपरक प्रेम की अनेक प्रतिभा एक समर्थ काव्यविवेचक के रूप में प्रकट हुई है। "विल्सन कॉलेज, साहित्य सभा" के समक्ष प्रस्तुत अपने गवेषणपूर्ण अंगरेजी व्याख्यानों के माध्यम से उन्होंने प्राचीन गुजराती साहित्य के इतिहास को व्यवस्थित रूप से प्रस्तुत करने का प्रथम प्रयास किया।

इनका प्रकाशन क्लैसिकल पोएट्स ऑव गुजरात ऐंड देयर इनफ्लुएंस आन सोयायटी ऐंड मॉरल्स" नाम से हुआ है। 1905 में गुजराती साहित्य परिषद् के "प्रमुख" रूप से दिए गए अपने भाषण में इन्होंने आचार्य आनंदशंकर बापूभाई ध्रुव से प्राप्त सूत्र को पकड़कर नरसी मेहता के कालनिर्णय की जो समस्या उठाई उस पर इतना वादविवाद हुआ कि वह स्वयं ऐतिहासिक महत्व की वस्तु बन गई। जीवन चरित लेखक के रूप में उनकी क्षमता "लीलावती जीवनकला" (ई. 1906) तथा "नवलग्रंथावलि (ई. 1891) के उपोदघात से अंकित की जाती है।

लीलावती उनकी दिवगंता पुत्री थी और उसके चरितलेखन में तत्वचिंतन एवं धर्मदर्शन को प्रधानता देते हुए उन्होंने सूक्ष्म देह की गतिविधि को प्रस्तुत किया है। नवलराम की जीवनकथा की उपेक्षा इसमें आत्मीयता का तत्व अधिक है। नवलराम की जीवनकथा की अपेक्षा इसमें आत्मीयता का तत्व अधिक है। गोवर्धनराम ने अपनी जीवनी के संबंध में भी कुछ "नोट्स लिख छोड़े थे जो अब "स्केच बुक" के नाम से प्रकाशित हो चुके हैं।

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