गुणसूत्र
गुणसूत्र या क्रोमोज़ोम (Chromosome) सभी वनस्पतियों व प्राणियों की कोशिकाओं में पाये जाने वाले तंतु रूपी पिंड होते हैं, जो कि सभी प्रत्येक प्रजाति में गुणसूत्रों की संख्या निश्चित रहती हैं। मानव कोशिका में गुणसूत्रों की संख्या ४६ होती है जो २३ के जोड़े में होते हैं। इनमे से २२ गुणसूत्र नर और मादा में समान और अपने-अपने जोड़े के समजात होते हैं। इन्हें सम्मिलित रूप से समजात गुणसूत्र (Autosomes) कहते हैं। २३वें जोड़े के गुणसूत्र स्त्री और पुरूष में समान नहीं होते जिन्हे विषमजात गुणसूत्र (heterosomes) कहते हैं । गुणसूत्र की संरचना में दो पदार्थ विशेषत: सम्मिलित हैं-
(1) डिआक्सीरिबोन्यूक्लीइक अम्ल (Deoxyribonucleic acid) या डी एन ए (D N A), तथा (2) हिस्टोन (Histone) नामक एक प्रकार का प्रोटीन। डी एन ए ही आनुवंशिक (hereditary) पदार्थ है। डी एन ए (D N A) अणु की संरचना में चार कार्बनिक समाक्षार सम्मिलित होते हैं : दो प्यूरिन (purines), दो पिरिमिडीन्स (pyrimidines), एक शर्करा-डिआक्सीरिबोज (Deoxyribose) और फासफ़ोरिक अम्ल (Phosphoric acid)। प्यूरिन में ऐडिनिन (Adenine) और ग्वानिन (Guanine) होते है और पिरिमिडीन में थाइमीन (Thymine) और साइटोसिन (Cytosine)। डी एन ए (D N A) के एक अणु में दो सूत्र होते हैं, जो एक दूसरे के चारों और सर्पिल रूप में वलयित (spirallyicoiiled) होते है। प्रत्येक डी एन ए (D N A) सूत्र में एक के पीछे एक चारों कार्बनिक समाक्षार इस क्रम से होते हैं-थाइमीन, साइटोसिन, ऐडिनीन और ग्वानिन, एवं वे परस्पर एक विशेष ढंग से जुड़े होते हैं।
इन चार समाक्षारों और उनसे संबंधित शर्करा और फास्फोरिक अम्ल अणु का एक एकक टेट्रान्यूक्लीओटिड (Tetranucleotide) होता है और कई सहस्त्र टेट्रान्यूक्लीओटिडों का एक डी एन ए (D N A) अणु बनता है।
विभिन्न प्राणियों के डी एन ए की विभिन्नता का कारण है - समाक्षारों के अनुक्रम में अंतर होना। डी एन ए और ऐसा ही एक दूसरा न्यूक्लिक अम्ल आर एन ए (R N A) कार्बनिक समाक्षार की उपस्थिति के कारण पराबैंगनी को अधिकांश 2,600 एंगस्ट्रॉम के क्षेत्र में अंतर्लीन (absorb) करते हैं। इसी आधार पर डी एन ए का एक कोशिका संबंधी मात्रात्मक आगमन किया जाता है।
प्रकार संपादित करें प्राणियों में दो विशेष प्रकार के केंद्रसूत्र पाए जाते हैं। एक तो कुछ डिप्टरा इंसेक्टा (Diptera, Insecta) में डिंभीय लारग्रंथि (larval salivary gland) के केंद्रकों में पाया जाता है। ये गुणसूत्र उसी जाति के साधारण गुणसूत्रों की अपेक्षा कई सौ गुने लंबे और चौड़े होते हैं। इस कारण इन्हें महागुणसूत्र (Giant chromosomes) कहते हैं। इनकी संरचना साधारण समसूत्रण और अर्धसूत्रण केंद्रसूत्रों से कुछ भिन्न दिखाई पड़ती है। यहाँ एक गुणसूत्र के स्थान पर एक अनुप्रस्थ पंक्ति ऐसी कणिकाओं की होती है जिनमें अभिरंजित होने की योग्यता अधिक होती हैं। गुणसूत्र के एक छोर से दूसरे छोर तक बहुत सी ऐसी अनुप्रस्थ पंक्तियों की सभी कणिकाएँ एक समान होती हैं और अन्य पंक्तियों की कणिकाओं में विशेषताएँ और विभिन्नताएँ होती है। इन गुणसूत्रों के अधिक लंबे होने के कारण यह समझा जाता है कि इनका पूर्ण रूप से विसर्पिलीकरण (despiralisation) होता है और कदाचित् प्रोटीन का कुछ बढ़ाव भी होता हैं।
अधिक चौड़े होने के कारण यह है कि एक गुणसूत्र अपने समान एक दूसरे केंद्रक-त्र का संश्लेषण करता है। साधारण अवस्था में समसूत्रण के समय ये दोनों सूत्र एक दूसरे से पृथक् हो जाते हैं, परंतु महागुणसूत्र में यह नहीं होता। दोनों सूत्र एक दूसरे से जुड़े ही रह जाते हैं। महागुणसूत्र की संख्या साधारण गुणसूत्र की संख्या की आधी होती है, क्योंकि प्रत्येक सूत्र अपने समान दूसरे सूत्र से युग्मित हो जाता है। इस घटना को दैहिक युग्मन (Somatic pairing) कहते हैं।
जंतुओं में विचित्र प्रकार का एक और भी गुणसूत्र पाया जाता है। इसक लैंपब्रश गुणसूत्र (Lampbrush chromosome) कहते हैं। ये गुणसूत्र ऐसे जंतुओं के अंडों के केंद्रकों में पाए जाते हैं जिनमें अंडपीत की मात्रा अधिक होती है, जैसे मछली, उभयचर, उरग, पक्षीगण इत्यादि। गुणसूत्र साधारण डिप्लोटीन-डायाकिनीसिस (Diplotene-diakinesis) गुणसूत्रों के समान दो दो युग्मित सूत्रों के बने होते हैं। दोनों युग्मित सूत्र कुछ स्थानों पर एक दूसरे से जुड़े होते हैं और शेष स्थानों पर एक दूसरे से दूर-दूर रहते हैं। इन जोड़ों को किएज्मा समझा जाता है। प्रत्येक सूत्र पर, जिसकों क्रोमोनिमा (Chromonema) कहते हैं, स्थान स्थान पर विभिन्न परिसाण की कणिकाएँ होती हैं जिनको क्रोमोमियर्स (Chromomeres) कहते हैं। प्रत्येक क्रोमोमियर से एक जोड़ी या अधिक पार्श्वपाश (lateral loops) जुड़े हुए होते है। पार्श्वपाश भी क्रोमोनिमा के सदृश सूत्र का बना होता है, परंतु इसके चारों ओर रिबोन्यूक्लिओ-प्रोटीन कणिकाएँ एकत्रित हो जाती हैं जिससे ये सूत्र मोटे दिखाई देते हैं। क्रोमोमियर भी क्रोमोनिमा से संतत होते हैं। केंद्रकाएँ विशेष गुणसूत्र पर उत्पन्न होती हैं।
अधिकांश जंतुओं की प्रत्येक कोशिका में गुणसूत्रों के दो एकात्म कुलक होते हैं। परिपक्व लिंगकोशिकाओं (mature sex-cells) में एक कुलक रह जाता है। ऐसे प्राणी और कोशिकाएँ द्विगणित (diploid) कही जाती हैं, परंतु कुछ प्राणियों, विशेषत: पौधों, में दो से अधिक कुलक गुणसूत्रों के होते हैं यह बहुगुणित (polyploid) कहे जाते हैं।
यदि किसी द्विगुणित प्राणी के केंद्रकसुत्र दुगुने हो जाए, जिससे उसकी कोशिकाएँ में प्रत्येक सूत्र चार चार हों जैसे, (क1 क1 क1 क1; ख1 ख1 ख1 ख1, ग1 ग1 ग1 ग1 इत्यादि) तो ऐसे प्राणी का आटोपॉलिप्लॉइड (आटीटेट्राप्लॉइड) [autopolyploid (autotetraploid)] कहते हैं। यदि किसी द्विगुणित संकर (deploid hybrid) के गुणसूत्र दुगुने हो जाए तो ऐसे प्राणी को ऐलोपॉलिप्लॉइड (allopolyploid) कहते हैं। यदि एक द्विगुणित प्राणी का, जिसके केंद्रकसुत्र क1 क1 ख1 ख1 ग1 ग1 इत्यादि हैं, किसी दूसरे प्राणी से, जिसके गुणसूत्र क2 क2 ख2 ख2 ग2 ग2 इत्यादि हैं, संकरण किया जाए तो उसकी संतान के गुणसूत्र क1 क2 ख1 ख2 ग1 ग2 इत्यादि होंगे। क1 क2 ख1 ख2 इत्यादि एक दूसरे से भिन्न होंगे और इनमें साधारणत: युग्मन नहीं होगा। यदि इस प्राणी के गुणसूत्र दुगुने हो जाए तो उनकी कोशिकाएँ में क1 क1 क2 क2; ख1 ख1ख2 ख2; ग1 ग1 ग2 ग2, इत्यादि गुणसूत्र होंगे। यह ऐलोपॉलिप्लॉइड (ऐलोटेट्राप्लॉइड) कहा जाएगा। पॉलिप्लॉइड में चार से अधिक कुलक भी हो सकते हैं।
यह स्पष्ट है कि ऑटोपॉलिप्लॉइड में ज़ाइगोटीन अवस्था में चतु:संयोजक (quadrivalents) उत्पन्न हो जाएँगे, क्योंकि प्रत्येक प्रकार के चार-चार गुणसूत्र उपस्थित हैं और चार सूत्रों के युग्मन से एक चतु:संयोजक बनता है। कोशिका विभाजन के समय प्रत्येक ध्रुव को बराबर-बराबर संख्या में गुणसूत्र नहीं मिलेंगे। प्राय: ऐसा होता है कि एक चतु:संयोजक के टूटने से किसी ध्रुव पर तीन सूत्र पहुँचे और उसके समुख ध्रुव पर एक ही सूत्र पहुँचे। कोशिका विभाजन के अंत पर बने हुए संतति कोशिकाओं (daughter cells) में गुणसूत्र या तो अधिक संख्या में होंगे या कम में और ऐसे असंतुलन का परिणाम यह होता है कि कोशिका मर जाती है। इसी कारण ऑटोटेट्राप्लॉइड बहुत कम उर्वर होते हैं। ऑटोटेट्राप्लॉइड पौधे साधारण द्विगुणित पौधों से बहुत बड़े होते हैं तथा उनके बीज भी बहुत बड़े होते हैं, जिससे उर्वरता कम होने पर भी ये गृहस्थी के लिये अधिक लाभदायक सिद्ध हो सकते हैं। ठंढक पहुँचाकर, या कुछ ऐलकेलायडों के प्रभाव से, पौधे आटोपॉलिप्लाइड बनाए जा सकते हैं।
ऐलोटेट्राप्लॉइड में दशा इसके विपरीत होती हैं। यदि दोनों आदिम मातापिता के सूत्र एक दूसरे से पूर्ण रूप से विभिन्न हों तो ऐलोपॉलिप्लाइड क्रियात्मक रूप से द्विगुणित है और पूर्ण रूप से उर्वर होगा। जैसे, यदि किसी संकर में क1 क2, ख1 ख2, ग1 ग2 से सूत्र सर्वथा भिन्न हों तो ऐसा संकर बंध्या होगा, परंतु इसके गुणसूत्रों के दुगुने होने से यह अवस्था बदल जायगी। ऐसी कोशिकाओं में क1 क1 क2 क2, ख1 ख1 ख2 ख2, ग1 ग1 ग2 ग2 इत्यादि सूत्र होंगे और जिन शाखाओं में ऐसी कोशिकाएँ होंगी उनपर फूल लगेंगे, क्योंकि ऐसी कोशिकाओं में माइओटिक विभाजन सफल होगा, क1 क1 से युग्मित होगा, ख1 ख1 से इत्यादि।
विभिन्न वनस्पतियों व जन्तुओं में गुणसूत्रों की संख्या इन्हें भी देखें
संरचना
गुणसूत्र की संरचना में दो पदार्थ विशेषत: संमिलित रहते हैं-
- (1) डिआक्सीरिबोन्यूक्लीइक अम्ल (Deoxyribonucleic acid) या डी एन ए (D N A), तथा
- (2) हिस्टोन (Histone) नामक एक प्रकार का प्रोटीन।
डी एन ए ही आनुवंशिक (hereditary) पदार्थ है। डी एन ए (D N A) अणु की संरचना में चार कार्बनिक समाक्षार सम्मिलित होते हैं : दो प्यूरिन (purines), दो पिरिमिडीन्स (pyrimidines), एक चीनी-डिआक्सीरिबोज (Deoxyribose) और फासफ़ोरिक अम्ल (Phosphoric acid)। प्यूरिन में ऐडिनिन (Adenine) और ग्वानिन (Guanine) होते है और पिरिमिडीन में थाइमीन (Thymine) और साइटोसिन (Cytosine)। डी एन ए (D N A) के एक अणु में दो सूत्र होते हैं, जो एक दूसरे के चारों और सर्पिल रूप में वलयित (spirallyicoiiled) होते है। प्रत्येक डी एन ए (D N A) सूत्र में एक के पीछे एक चारों कार्बनिक समाक्षार इस क्रम से होते हैं-थाइमीन, साइटोसिन, ऐडिनीन और ग्वानिन, एवं वे परस्पर एक विशेष ढंग से जुड़े होते हैं।
इन चार समाक्षारों और उनसे संबंधित शर्करा और फास्फोरिक अम्ल अणु का एक एकक टेट्रान्यूक्लीओटिड (Tetranucleotide) होता है और कई सहस्त्र टेट्रान्यूक्लीओटिडों का एक डी एन ए (D N A) अणु बनता है।
विभिन्न प्राणियों के डी एन ए की विभिन्नता का कारण है - समाक्षारों के अनुक्रम में अंतर होना। डी एन ए और ऐसा ही एक दूसरा न्यूक्लिक अम्ल आर एन ए (R N A) कार्बनिक समाक्षार की उपस्थिति के कारण पराबैंगनी को अधिकांश 2,600 एंगस्ट्रॉम के क्षेत्र में अंतर्लीन (absorb) करते हैं। इसी आधार पर डी एन ए का एक कोशिका संबंधी मात्रात्मक आगमन किया जाता है।
प्रकार
प्राणियों में दो विशेष प्रकार के केंद्रसूत्र पाए जाते हैं। एक तो कुछ डिप्टरा इंसेक्टा (Diptera, Insecta) में डिंभीय लारग्रंथि (larval salivary gland) के केंद्रकों में पाया जाता है। ये गुणसूत्र उसी जाति के साधारण गुणसूत्रों की अपेक्षा कई सौ गुने लंबे और चौड़े होते हैं। इस कारण इन्हें महागुणसूत्र (Giant chromosomes) कहते हैं। इनकी संरचना साधारण समसूत्रण और अर्धसूत्रण केंद्रसूत्रों से कुछ भिन्न दिखाई पड़ती है। यहाँ एक गुणसूत्र के स्थान पर एक अनुप्रस्थ पंक्ति ऐसी कणिकाओं की होती है जिनमें अभिरंजित होने की योग्यता अधिक होती हैं। गुणसूत्र के एक छोर से दूसरे छोर तक बहुत सी ऐसी अनुप्रस्थ पंक्तियों की सभी कणिकाएँ एक समान होती हैं और अन्य पंक्तियों की कणिकाओं में विशेषताएँ और विभिन्नताएँ होती है। इन गुणसूत्रों के अधिक लंबे होने के कारण यह समझा जाता है कि इनका पूर्ण रूप से विसर्पिलीकरण (despiralisation) होता है और कदाचित् प्रोटीन का कुछ बढ़ाव भी होता हैं।
अधिक चौड़े होने के कारण यह है कि एक गुणसूत्र अपने समान एक दूसरे केंद्रक-त्र का संश्लेषण करता है। साधारण अवस्था में समसूत्रण के समय ये दोनों सूत्र एक दूसरे से पृथक् हो जाते हैं, परंतु महागुणसूत्र में यह नहीं होता। दोनों सूत्र एक दूसरे से जुड़े ही रह जाते हैं। महागुणसूत्र की संख्या साधारण गुणसूत्र की संख्या की आधी होती है, क्योंकि प्रत्येक सूत्र अपने समान दूसरे सूत्र से युग्मित हो जाता है। इस घटना को दैहिक युग्मन (Somatic pairing) कहते हैं।
जंतुओं में विचित्र प्रकार का एक और भी गुणसूत्र पाया जाता है। इसक लैंपब्रश गुणसूत्र (Lampbrush chromosome) कहते हैं। ये गुणसूत्र ऐसे जंतुओं के अंडों के केंद्रकों में पाए जाते हैं जिनमें अंडपीत की मात्रा अधिक होती है, जैसे मछली, उभयचर, उरग, पक्षीगण इत्यादि। गुणसूत्र साधारण डिप्लोटीन-डायाकिनीसिस (Diplotene-diakinesis) गुणसूत्रों के समान दो दो युग्मित सूत्रों के बने होते हैं। दोनों युग्मित सूत्र कुछ स्थानों पर एक दूसरे से जुड़े होते हैं और शेष स्थानों पर एक दूसरे से दूर-दूर रहते हैं। इन जोड़ों को किएज्मा समझा जाता है। प्रत्येक सूत्र पर, जिसकों क्रोमोनिमा (Chromonema) कहते हैं, स्थान स्थान पर विभिन्न परिसाण की कणिकाएँ होती हैं जिनको क्रोमोमियर्स (Chromomeres) कहते हैं। प्रत्येक क्रोमोमियर से एक जोड़ी या अधिक पार्श्वपाश (lateral loops) जुड़े हुए होते है। पार्श्वपाश भी क्रोमोनिमा के सदृश सूत्र का बना होता है, परंतु इसके चारों ओर रिबोन्यूक्लिओ-प्रोटीन कणिकाएँ एकत्रित हो जाती हैं जिससे ये सूत्र मोटे दिखाई देते हैं। क्रोमोमियर भी क्रोमोनिमा से संतत होते हैं। केंद्रकाएँ विशेष गुणसूत्र पर उत्पन्न होती हैं।
अधिकांश जंतुओं की प्रत्येक कोशिका में गुणसूत्रों के दो एकात्म कुलक होते हैं। परिपक्व लिंगकोशिकाओं (mature sex-cells) में एक कुलक रह जाता है। ऐसे प्राणी और कोशिकाएँ द्विगणित (diploid) कही जाती हैं, परंतु कुछ प्राणियों, विशेषत: पौधों, में दो से अधिक कुलक गुणसूत्रों के होते हैं यह बहुगुणित (polyploid) कहे जाते हैं।
यदि किसी द्विगुणित प्राणी के केंद्रकसुत्र दुगुने हो जाए, जिससे उसकी कोशिकाएँ में प्रत्येक सूत्र चार चार हों जैसे, (क1 क1 क1 क1; ख1 ख1 ख1 ख1, ग1 ग1 ग1 ग1 इत्यादि) तो ऐसे प्राणी का आटोपॉलिप्लॉइड (आटीटेट्राप्लॉइड) [autopolyploid (autotetraploid)] कहते हैं। यदि किसी द्विगुणित संकर (deploid hybrid) के गुणसूत्र दुगुने हो जाए तो ऐसे प्राणी को ऐलोपॉलिप्लॉइड (allopolyploid) कहते हैं। यदि एक द्विगुणित प्राणी का, जिसके केंद्रकसुत्र क1 क1 ख1 ख1 ग1 ग1 इत्यादि हैं, किसी दूसरे प्राणी से, जिसके गुणसूत्र क2 क2 ख2 ख2 ग2 ग2 इत्यादि हैं, संकरण किया जाए तो उसकी संतान के गुणसूत्र क1 क2 ख1 ख2 ग1 ग2 इत्यादि होंगे। क1 क2 ख1 ख2 इत्यादि एक दूसरे से भिन्न होंगे और इनमें साधारणत: युग्मन नहीं होगा। यदि इस प्राणी के गुणसूत्र दुगुने हो जाए तो उनकी कोशिकाएँ में क1 क1 क2 क2; ख1 ख1ख2 ख2; ग1 ग1 ग2 ग2, इत्यादि गुणसूत्र होंगे। यह ऐलोपॉलिप्लॉइड (ऐलोटेट्राप्लॉइड) कहा जाएगा। पॉलिप्लॉइड में चार से अधिक कुलक भी हो सकते हैं।
यह स्पष्ट है कि ऑटोपॉलिप्लॉइड में ज़ाइगोटीन अवस्था में चतु:संयोजक (quadrivalents) उत्पन्न हो जाएँगे, क्योंकि प्रत्येक प्रकार के चार-चार गुणसूत्र उपस्थित हैं और चार सूत्रों के युग्मन से एक चतु:संयोजक बनता है। कोशिका विभाजन के समय प्रत्येक ध्रुव को बराबर-बराबर संख्या में गुणसूत्र नहीं मिलेंगे। प्राय: ऐसा होता है कि एक चतु:संयोजक के टूटने से किसी ध्रुव पर तीन सूत्र पहुँचे और उसके समुख ध्रुव पर एक ही सूत्र पहुँचे। कोशिका विभाजन के अंत पर बने हुए संतति कोशिकाओं (daughter cells) में गुणसूत्र या तो अधिक संख्या में होंगे या कम में और ऐसे असंतुलन का परिणाम यह होता है कि कोशिका मर जाती है। इसी कारण ऑटोटेट्राप्लॉइड बहुत कम उर्वर होते हैं। ऑटोटेट्राप्लॉइड पौधे साधारण द्विगुणित पौधों से बहुत बड़े होते हैं तथा उनके बीज भी बहुत बड़े होते हैं, जिससे उर्वरता कम होने पर भी ये गृहस्थी के लिये अधिक लाभदायक सिद्ध हो सकते हैं। ठंढक पहुँचाकर, या कुछ ऐलकेलायडों के प्रभाव से, पौधे आटोपॉलिप्लाइड बनाए जा सकते हैं।
ऐलोटेट्राप्लॉइड में दशा इसके विपरीत होती हैं। यदि दोनों आदिम मातापिता के सूत्र एक दूसरे से पूर्ण रूप से विभिन्न हों तो ऐलोपॉलिप्लाइड क्रियात्मक रूप से द्विगुणित है और पूर्ण रूप से उर्वर होगा। जैसे, यदि किसी संकर में क1 क2, ख1 ख2, ग1 ग2 से सूत्र सर्वथा भिन्न हों तो ऐसा संकर बंध्या होगा, परंतु इसके गुणसूत्रों के दुगुने होने से यह अवस्था बदल जायगी। ऐसी कोशिकाओं में क1 क1 क2 क2, ख1 ख1 ख2 ख2, ग1 ग1 ग2 ग2 इत्यादि सूत्र होंगे और जिन शाखाओं में ऐसी कोशिकाएँ होंगी उनपर फूल लगेंगे, क्योंकि ऐसी कोशिकाओं में माइओटिक विभाजन सफल होगा, क1 क1 से युग्मित होगा, ख1 ख1 से इत्यादि।
विभिन्न वनस्पतियों व जन्तुओं में गुणसूत्रों की संख्या
धतूरा स्ट्रामोनिअम (Datura stramonium) में द्विगुणित अवस्था में 12 जोड़ी गुणसूत्र होते हैं और अर्धसूत्रण के समय द्विसंयोजक बनते हैं। इसके ऑटोपॉलिप्लॉइड में 12 चतुष्क (48) गुणसूत्र होते है और अर्धसूत्रण के समय 12 चतु:संयोजक बनते हैं। इसी भाँति प्रिम्यूला साइनेंसिस (Primula sinensis) से द्विगुणित पौधे में 12 जोड़ी गुणसूत्र होते हैं और ऑटोटेट्राप्लॉइड में 48 सूत्र होते हैं एवं अर्धसूत्रण के समय इसमें 9 से 11 चतु:संयोजक और 2 से 6 तक द्विसंयोजक बनते हैं। सोलेमन लाइकोपरसिकॉन (Solanum lycopersicon) के द्विगुणित में 12 जोड़ी गुणसूत्र होते हैं और उसके ऑटोटेट्राप्लॉइड में 12 चतुष्क (48) गुणसूत्र। ये सब पौधे हैं।
क्रीपिस रुब्रा (Crepis rubra) औरा क्रीपिस फ़ोएटिडा (Crepis foctida) में 5 जोड़ी गुणसूत्र होते हैं। इनके सूत्र एक दूसरे से बहुत भिन्न नहीं होते और इनके संकरण से उत्पन्न संकर में अर्धसुत्रण के समय 5 द्विसंयोजक बनते हैं। इसके ऐलोपॉलिप्लॉइड में 20 केंद्रकसूत्र होते हैं और अर्धसूत्रण में 0 से 5 चतु:संयोजक बनते हैं और 0 से 10 द्विसंयोजक। स्पष्ट है कि ऐलोटेट्राप्लॉइड बहुत उर्वर नहीं होगा। प्रिम्यूला फ्लोरिबंडा (Primula floribunda) और प्रिम्यूला रेस्टिसिलेटा (Primula resticillata) दोनों में ही 9 जोड़ी गुणसूत्र होते हैं, जो एक दूसरे के प्राय: समान होते हैं। इनके संकरण से जो संकर बनाता है उसे प्रित्यूजा किवेन्सिस कहते हैं। इसमें भी 9 जोड़ी गुणसूत्र होते हैं। अर्धसूत्रण के समय में युग्मन क्रिया सफल होती है और 9 द्विसंयोजक बनते हैं। सूत्रों के द्विगुण होने से जो ऐलोपॉलिप्लाइड बनता है उसमें 9 चतुष्क (36) सूत्र होते हैं और ऐसे पौधे में 12 से 18 तक द्विसंयोजक बनते हैं और 0 से 3 तक चतु:संयोजक। स्पष्ट है कि चतु:संयोजकों की संख्या बहुत कम है और कभी-कभी एक भी चतु:संयोजक नहीं बनता।
मूली (Raphanus) और करमकल्ला (Brassica) में से प्रत्येक में 9 जोड़ी गुणसूत्र होते हैं, जो एक दूसरे से पूर्णत: भिन्न होते हैं। इनके संकरण से उत्पन्न संकर रैफ़ानस ब्रैसिका (Raphanus-Brassica) में भी 9 जोड़ी गुणसूत्र होते हैं; परंतु अर्धसूत्रण में एक भी द्विसंयोजक नहीं बनता, क्योंकि युग्मन की क्रिया सफल नहीं होती और सभी सूत्र अयुग्मित रह जाते हैं जिससे 12 एक-संयोजक बनते हैं। इसके सूत्र द्विगुण से उत्पन्न ऐलोटेट्राप्लॉइड में 12 जोड़ी सूत्र होते हैं और अर्धसूत्रण में 12 संयोजक बनते हैं, चतु:संयोजक एक भी नहीं। परिणाम यह होता है कि रैफ़ानस-ब्रैसिका-ऐलाटेट्राप्लॉइड बहुत उर्वर होता है, यद्यपि रैफ़ानस-ब्रैसिका-द्विगुणित बंध्या होता है।
जंतुओं में पॉलिप्लॉइडी बहुत कम पाई जाती है पर यह अनिषेकजनित (Parthenogenetic) जंतुओं में बहुधा पाई जाती है। पौधों में बहुत सी नई जातियाँ पॉलिप्लॉइड के कारण उत्पन्न हुई होंगी। इसका प्रमाण इससे मिलता है कि ऐंजियोस्पर्म्स (Angiosperms) की लगभग आधी जातियाँ ऐसी है जिनके परिपक्व युग्मकों (Gametes) के गुणसूत्रों की संख्या किसी संबंधित जाति के युग्मकीय गुणसूत्र की संख्या की गुणित है। गेहूँ की कई जातियाँ हैं। इन जातियों की मूल युग्मकीय केंद्रकसुत्र संख्या 7 है। गुणसूत्रों की संख्या गेहूँ की जातियों में 7 की गुणित 14,21,42 तथा 49 तक पाई जाती है। इसी भाँति तंबाकू की भिन्न-भिन्न जातियों में गुणसूत्रों की संख्या 12 अथवा 12 की गुणित 24 होती है। पौधों में प्रयोग द्वारा बहुत से पॉलिप्लॉइड बनाए गए हैं, जिनमें एकात्मक सूत्रों के दो कुलक होते हैं। ये उर्वर होते हैं।
इसमें संदेह नहीं कि कोशिकाद्रव्य, केंद्रक के नियंत्रण में कार्यशील होता है। अनेक प्रकार के कोशिकासमूह अन्यान्य कार्यों के संचालन में लगे रहते हैं। उदाहरणत: अग्न्याश (Pancreas) की एक्सोक्राइन (Excorine) कोशिकाएँ विशेष पाचक किण्वज उत्पन्न करती हैं। गुदा की नलिका की कोशिकाएँ रुधिर से यूरिया निकाल लेती हैं और यकृत की कोशिकाएँ ग्लूकोस को ग्लाइकोजन में परिणत करके एकमित कर लेती हैं। स्पष्ट है कि किसी भी प्राणी की प्रत्येक कोशिका में उसके सब जीन (Gene) साधारणत: उपस्थित होते हैं। इसलिये भिन्न-भिन्न प्रकार की कोशिकाओं के विविध प्रकार के प्रोटीनों (जिनकी वे बनी है) की उत्पत्ति में कुछ उपयुक्त जीन तो सक्रिय रहे होंगे और शेष सब निष्क्रिय हो गए होंगे ओर उनकी सक्रियता के संबंध में भी यही बात होती होगी।