कर्णकवकता
कणकवकता या कर्णमक्षिकता (Otomycosis) यह बाह्यकर्ण का एक छूत का रोग है जो प्राय: श्रवणछिद्र पर होता है। ऐसा माना जाता है कि ये रोग बाह्य जीवाणुनाशक औषधियों के प्रयोग का कुपरिणाम होता है। ये जीवाणुनाशक औषधियाँ फ़ंगस जीवाणुओं हेतु एक पीढ़ीवर्धक पोषक का कार्य करती हैं। इस रोग में मुख्यत: भाग लेनेवाले फ़गस या तो एस्परगिलस समूह से संबद्ध होते हैं या फिर केंडिडा एल्वीकेंस समूह के होते हैं। यह रोग ऊष्ण या अधोष्ण जलवायु में अधिक प्रखर होता है।
कान का परीक्षण करने पर पता चलता है कि कर्णछिद्र एक प्रकार के भीगे हुए सफेद सोख्ता कागज की तरह मुलायम पदार्थ से भरा होता है। कभी-कभी एस्परगिलस नाइगर नामक फ़ंगस की उपस्थिति के कारण यह मुलायम पदार्थ सफेद के स्थान पर गाढ़े भूरे या काले रंग का भी पाया जा सकता है। इस पदार्थ को छिद्र से हटा देने के बाद यदि तुरंत ही दूसरा पदार्थ बन जाए तो कर्णकवकता नाम की बीमारी का संदेह किया जा सकता है। फिर भी निदान का संदेह मिटाने हेतु पदार्थ का सूक्ष्मदर्शी द्वारा परीक्षण करते हैं जिसमें शाखायुक्त तंतु माइसीलियम बनाते हुए तथा बीजयुक्त एस्परगिलस फ़ंगस के तंतु अथवा केडिडा एल्वीकेंस फ़ंगस के यीस्ट की तरह की कोशिकाएँ भी हो सकती हैं।
इस रोग की दशा में कान में खुजली होती है, कभी-कभी रंगहीन स्राव और यदि कर्णछिद्र का पूरा व्यास रुग्णक पदार्थ से भरा हो तो दर्द के साथ बहरापन भी पाया जा सकता है। उपचार के लिए कर्णछिद्र की शुष्क सफाई तथा "निस्टेटिन' नामक फ़ंगस विनाशक औषधि का उपयोग या तो पाउडर की तरह करते हैं या फिर मरहम के रूप में लगाते हैं। २ऽ क्षमतावाले सेलिसिलिक अम्ल को ९५ऽ क्षमतावाले एल्कोहल के साथ मिलाकर अथवा उपर्युक्त घोल में भीगे हुए फीते के टुकड़े कर्णछिद्र में करते हैं। वैसे एनीलिन अभिरंजक का भी कर्णछिद्र पर लेप करते हैं, किंतु इसका प्रयोग उपर्युक्त औषधियों से कम प्रभावशाली है।