अभयचरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद
अभयचरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद अंतर्राष्ट्रीय कृष्णभावनामृत संघ के संस्थापकाचार्य | |
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संस्कृत |
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धर्म | गौड़ीय वैष्णववद, हिन्दू धर्म |
संप्रदाय | ब्रह्ममधवगौड़िया संप्रदाय |
उपसंप्रदाय | साँचा:br separated entries |
मंदिर | इस्कॉन |
अन्य नाम | श्रील प्रभुपाद, स्वामी प्रभुपाद, भक्तिवेदांत स्वामी |
व्यक्तिगत विशिष्ठियाँ | |
राष्ट्रीयता | भारतीय |
जन्म | साँचा:br separated entries |
निधन | साँचा:br separated entries |
शांतचित्त स्थान | साँचा:br separated entries |
जीवनसाथी | लुआ त्रुटि package.lua में पंक्ति 80 पर: module 'Module:i18n' not found। |
बच्चे | लुआ त्रुटि package.lua में पंक्ति 80 पर: module 'Module:i18n' not found। |
पिता | लुआ त्रुटि package.lua में पंक्ति 80 पर: module 'Module:i18n' not found। |
माता | लुआ त्रुटि package.lua में पंक्ति 80 पर: module 'Module:i18n' not found। |
पद तैनाती | |
कर्मभूमि | वृन्दावन, भारत |
उपदि | अंतर्राष्ट्रीय कृष्णभावनामृत संघ के संस्थापकाचार्य |
कार्यकाल | 1966–1977 |
धार्मिक जीवनकाल | |
गुरु | भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर |
काम | भगवद्गीता यथारूप (हिंदी, अंग्रेजी तथा और भी अन्य भाषाओँ में), श्रीमद् भागवतम् |
Initiation | दीक्षा–1933, सन्यास–1959 |
पद | गुरु, सन्यासी, संस्थापकाचार्य |
वेबसाइट | इस्कॉन की आधिकारिक वेबसाइट प्रभुपाद जी की आधिकारिक वेबसाइट |
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अभयचरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (1 सितम्बर 1896 – 14 नवम्बर 1977) जिन्हें स्वामी श्रील भक्तिवेदांत प्रभुपाद के नाम से भी जाना जाता है,सनातन हिन्दू धर्म के एक प्रसिद्ध गौडीय वैष्णव गुरु तथा धर्मप्रचारक थे। आज संपूर्ण विश्व की हिन्दु धर्म भगवान श्री कृष्ण और श्रीमदभगवतगीता में जो आस्था है आज समस्त विश्व के करोडों लोग जो सनातन धर्म के अनुयायी बने हैं उसका श्रेय जाता है अभयचरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद को, इन्होंने वेदान्त कृष्ण-भक्ति और इससे संबंधित क्षेत्रों पर शुद्ध कृष्ण भक्ति के प्रवर्तक श्री ब्रह्म-मध्व-गौड़ीय संप्रदाय के पूर्वाचार्यों की टीकाओं के प्रचार प्रसार और कृष्णभावना को पश्चिमी जगत में पहुँचाने का काम किया। ये भक्तिसिद्धांत ठाकुर सरस्वती के शिष्य थे जिन्होंने इनको अंग्रेज़ी भाषा के माध्यम से वैदिक ज्ञान के प्रसार के लिए प्रेरित और उत्साहित किया। इन्होने इस्कॉन (ISKCON) की स्थापना की और कई वैष्णव धार्मिक ग्रंथों का प्रकाशन और संपादन स्वयं किया।
इनका नाम "अभयचरण डे" था और इनका जन्मकलकत्ता में बंगाली कायस्थ परिवार में हुआ था । सन् १९२२ में कलकत्ता में अपने गुरुदेव श्री भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर से मिलने के बाद उन्होंने श्रीमद्भग्वद्गीता पर एक टिप्पणी लिखी, गौड़ीय मठ के कार्य में सहयोग दिया तथा १९४४ में बिना किसी की सहायता के एक अंगरेजी आरंभ की जिसके संपादन, टंकण और परिशोधन (यानि प्रूफ रीडिंग) का काम स्वयं किया। निःशुल्क प्रतियाँ बेचकर भी इसके प्रकाशन क जारी रखा। सन् १९४७ में गौड़ीय वैष्णव समाज ने इन्हें भक्तिवेदान्त की उपाधि से सम्मानित किया, क्योंकि इन्होने सहज भक्ति के द्वारा वेदान्त को सरलता से हृदयंगम करने का एक परंपरागत मार्ग पुनः प्रतिस्थापित किया, जो भुलाया जा चुका था।
सन् १९५९ में सन्यास ग्रहण के बाद उन्होंने वृंदावन में श्रीमदभागवतपुराण का अनेक खंडों में अंग्रेजी में अनुवाद किया। आरंभिक तीन खंड प्रकाशित करने के बाद सन् १९६५ में अपने गुरुदेव के अनुष्ठान को संपन्न करने वे ७० वर्ष की आयु में बिना धन या किसी सहायता के अमेरिका जाने के लिए निकले जहाँ सन् १९६६ में उन्होंने अंतर्राष्ट्रीय कृष्णभावनामृत संघ की स्थापना की। सन् १९६८ में प्रयोग के तौर पर वर्जीनिया (अमेरिका) की पहाड़ियों में नव-वृन्दावन की स्थापना की। दो हज़ार एकड़ के इस समृद्ध कृषि क्षेत्र से प्रभावित होकर उनके शिष्यों ने अन्य जगहों पर भी ऐसे समुदायों की स्थापना की। १९७२ में टेक्सस के डैलस में गुरुकुल की स्थापना कर प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा की वैदिक प्रणाली का सूत्रपात किया।
सन १९६६ से १९७७ तक उन्होंने विश्वभर का १४ बार भ्रमण किया तथा अनेक विद्वानों से कृष्णभक्ति के विषय में वार्तालाप करके उन्हें यह समझाया की कैसे कृष्णभावना ही जीव की वास्तविक भावना है। उन्होंने विश्व की सबसे बड़ी आध्यात्मिक पुस्तकों की प्रकाशन संस्था- भक्तिवेदांत बुक ट्रस्ट- की स्थापना भी की। कृष्णभावना के वैज्ञानिक आधार को स्थापित करने के लिए उन्होंने भक्तिवेदांत इंस्टिट्यूट की भी स्थापना की।
पुस्तकें और प्रकाशन
भक्तिवेदांत स्वामी का सबसे महत्वपूर्ण योगदान उनकी पुस्तकें हैं। भक्तिवेदांत स्वामी ने 60 से अधिक संस्करणों का अनुवाद किया। वैदिक शास्त्रों - भगवद गीता, चैतन्य चरितामृत और श्रीमद्भागवतम् - का अंग्रेजी भाषा में अनुवाद किया । इन पुस्तकों का अनुवाद ८० से अधिक भाषाओँ में हो चूका है और दुनिया भर में इन पुस्तकों का वितरण हो रहा है । wsnl के अनुसार - अब तक 55 करोड़ से अधिक वैदिक साहित्यों का वितरण हो चुका है ।
भक्तिवेदांत बुक ट्रस्ट की स्थापना 1972 में उनके कार्यों को प्रकाशित करने के लिए की गई थी।