उमर

मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से
(उमर बिन अल-ख़त्ताब से अनुप्रेषित)
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

साँचा:infobox royalty हजरत उमर इब्न अल-ख़त्ताब (अरबी में عمر بن الخطّاب), ई. (586–590 – 644) मुहम्मद साहब के प्रमुख चार सहाबा (साथियों) में से थे। वो हज़रत अबु बक्र के बाद मुसलमानों के दूसरे ख़लीफ़ा चुने गये। मुहम्मद साहब ने हज़रत उमर को फारूक नाम की उपाधि दी थी। जिसका अर्थ सत्य और असत्य में फर्क करने वाला है। मुहम्मद साहब के अनुयाईयों में इनका नाम हज़रत अबू बक्र के बाद आता है। उमर ख़ुलफा-ए-राशीदीन में दूसरे ख़लीफा चुने गए। उमर ख़ुलफा-ए-राशीदीन में सबसे सफल ख़लीफा साबित हुए। मुसलमान इनको फारूक-ए-आज़म तथा अमीरुल मुमिनीन भी कहते हैं। युरोपीय लेखकों ने इनके बारे में कई किताबें लिखी हैं तथा उमर महान (Umar The Great) की उपाधी दी है।

प्रारंभिक जीवन

हज़रत उमर का जन्म मक्का में हुआ था। ये कुरैश ख़ानदान से थे।[१] अशिक्षा के दिनों में भी लिखना पढ़ना सीख लिया था, जो कि उस ज़माने में अरब लोग लिखना पढ़ना बेकार का काम समझते थे।[२] इनका क़द बहुत ऊंचा, रौबदार चेहरा और गठीला शरीर था। उमर मक्का के मशहूर पहलवानों में से एक थे, जिनका पूरे मक्का में बड़ा दबदबा था। उमर सालाना पहलवानी के मुकाबलों में हिस्सा लेते थे।[२] आरम्भ में हज़रत उमर इस्लाम के कट्टर शत्रु थे। और मुहम्मद साहब को जान से मारना चाहते थे। उमर शुरू में बुत परस्ती करते थे। तथा बाद मे इस्लाम ग्रहण करने के बाद बुतो को तोड़ दिया, और अपना संपुर्ण जीवन इस्लाम धर्म के लिए न्योछावर कर दिया।

इस्लाम क़बूल करना

उमर मक्का में एक समृद्घ परिवार से थे, बहुत बहादुर तथा दिलेर व्यकित थे। उमर मुसलमानों और मुहम्मद साहब का विरोध करते थे। पैगंबर मुहम्म्द साहब ने एक शाम काबे के पास जाकर अल्लाह से दुआ (प्रार्थना) की कि अल्लाह हजरत उमर को या अम्र अबू जहल दोनों में से एक जो तुझको प्रिय हो उसे हिदायत दे। यह दुआ उमर के बारे में स्वीकार हुई। हजरत उमर एक बार पैगम्बर मुहम्मद के कत्ल के इरादे से निकले थे, रास्ते में नईम नाम का एक शख़्स मिला जिसने उमर को बताया कि उनकी बहन तथा उनके पति इस्लाम स्वीकार कर चुके हैं। उमर गुस्से में आकर बहन के घर चल दिये। वह दोनों घर पर कुरआन पढ़ रहे थे। उमर उनसे कुरआन मांगने लगे मगर उन्होंने मना कर दिया। उमर क्रोधित होकर उन दोनों को मारने लगे।

उनकी बहन ने कहा हम मर जाएंगे लेकिन इस्लाम नहीं छोड़ेंगे। बहन के चेहरे से खून टपकता देखकर हजरत उमर को शर्म आयी तथा ग़लती का अहसास हुआ। कहा कि मैं कुरआन पढ़ना चाहता हूँ, इसको अपमानित नहीं करूंगा वादा किया। जब उमर ने कुरआन पढ़ा तो बोले यक़ीनन ये ईश्वर की वाणी है किसी मनुष्य की रचना नहीं हो सकती। एक चमत्कार की तरह से उमर कुरआन के सत्य को ग्रहण कर लिया तथा मुहम्मद साहब से मिलने गये। मुहम्मद साहब और बाकी मुसलमानों को बहुत प्रसन्नता हुई उमर के इस्लाम स्वीकार करने पर। हजरत उमर ने एलान किया कि अब सब मिलके नमाज़ काबे में पढ़ेंगे जो कि पहले कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था। हजरत उमर को इस्लाम में देखकर मुहम्म्द साहब के शत्रुओं में कोहराम मच गया। अब इस्लाम को उमर नाम की एक तेज़ तलवार मिल गई थी जिससे सारा मक्का थर्राता था।

मदीने की हिजरत (प्रवास)

मक्का वालों ने कमज़ोर मुसलमानों पर अत्याचार करना तेज़ कर दिया जिसको देखकर मुहम्मद साहब ने अल्लाह से दुआ की तो अल्लाह ने मदीने जाने का आदेश दिया। सारे मुसलमान छुपकर मदीने की तरफ हिजरत यानि प्रवास करने लगे। मगर उमर बड़े दिलेर थे अपनी तलवार ली धनुष बाण लिया, काबा के पास पहुँच कर तवाफ किया, दो रकअत नामाज़ पढ़ी फिर कहा "जो अपनी माँ को अपने पर रुलाना चाहता है, अपने बच्चों को अनाथ तथा अपनी पत्नी को विधवा बनाना चाहता है इस जगह मिले।" किसी का साहस नहीं हुआ कि उमर को रोके। उमर ने एैलान करके हिजरत की।

मदीने की ज़िंदगी

हज़रत उमर की तलवार

मदीना इस्लाम का एक नया केन्द्र बन चुका था। सन हिजरी इसलामी कैलंडर का निर्माण किया जो इस्लाम का पंचांग कहलाता है। 624 ई में मुसलमानों को बद्र की जंग लड़ना पड़ा जिसमें हज़रत उमर ने भी अहम् किरदार निभाया। बद्र की जंग में मुसलमानों की जीत हुई तथा मक्का के मुशरिकों की हार हुई। बद्र की जंग के एक साल बाद मक्का वाले एकजुट हो कर मदीने पे हमला करने आ गए, जंग उहुद नामक पहाड़ी के पास हुई।

जंग के शुरू में मुस्लिम सेना भारी पड़ी लेकिन कुछ कारणों वश मुस्लिमों की हार हुई। कुछ लोगों ने अफवाह उड़ा दी कि मुहम्मद साहब शहीद कर दिये गये तो बहुत से मुस्लिम घबरा गए, उमर ने भी तलवार फेंक दी तथा कहने लगे अब जीना बेकार है। कुछ देर बाद पता चला की ये एक अफवाह है तो दुबारा खड़े हुए। इसके बाद खन्दक की जंग में साथ-साथ रहे। उमर ने मुस्लिम सेना का नेत्रत्व किया अंत में मक्का भी जीता गया। इसके बाद भी कई जंगों का सामना करना पड़ा, उमर ने उन सभी जंगो में नेत्रत्व किया।

पैगम्बर मुहम्म्द की मृत्यु के बाद

8 जून सन् 632 को पैगम्बर मुहम्मद की मृत्यु हो गयी। उमर तथा कुछ लोग ये विश्वास ही नहीं रखते थे कि मुहम्मद साहब की मुत्यु भी हो सकती है। ये ख़बर सुनकर उमर अपने होश खो बैठे, अपनी तलवार निकाल ली तथा ज़ोर-ज़ोर से कहने लगे कि जिसने कहा कि नबी की मौत हो गई है मैं उसका सर तन से अलग कर दूंगा। इस नाज़ुक मौके़ पर तभी अबु बक्र ने मुसलमानों को एक खु़तबा अर्थात भाषण दिया जो बहुत मशहूर है:

साँचा:quote फिर क़ुरआन की आयत पढ़ कर सुनाई: साँचा:quote

अबु बक्र से सुनकर तमाम लोग गश खाकर गिर गये, उमर भी अपने घुटनों के बल गिर गये तथा इस बहुत बड़े दु:ख को स्वीकार कर लिया।

एक ख़लीफा के रूप में नियुक्ति

जब अबु बक्र को लगा कि उनका अंत समय नज़दीक है तो उन्होंने अगले खलीफा के लिए उमर को चुना। उमर उनकी असाधारण इच्छा शक्ति, बुद्धि, राजनीतिक, निष्पक्षता, न्याय और गरीबों और वंचितों लोगों के लिए देखभाल के लिए अच्छी तरह से जाने जाते थे। हज़रत अबु बक्र को पूरी तरह से उमर की शक्ति और उनको सफल होने की क्षमता के बारे में पता था। उमर का उत्तराधिकारी के रूप में दूसरों के किसी भी रूप में परेशानी नहीं था। अबु बक्र ने अपनी मृत्यु के पहले ही हज़रत उसमान को अपनी वसीयत लिखवाई कि उमर उनके उत्तराधिकारी होंगे। अगस्त सन् 634 ई में हज़रत अबु बक्र की मृत्यू हो गई। उमर अब ख़लीफा हो गये तथा एक नये दौर की शुरुवात हुई।

प्रारंभिक चुनौतियां

भले ही लगभग सभी मुसलमानों ने हज़रत उमर र.अ. के प्रति अपनी वफादारी की प्रतिज्ञा दी थी, लेकिन उन्हें प्यार से ज्यादा डर था। मुहम्मद हुसैन हयाकल के अनुसार, उमर के लिए पहली चुनौती अपने विषयों और मजलिस अल शूरा के सदस्यों पर जीत हासिल करना था।

हज़रत उमर र.अ. एक उपहार देने वाले व्यक्ति थे, और उन्होंने लोगों के बीच अपनी प्रतिष्ठा को सुधारने की अपनी क्षमता का इस्तेमाल किया।

मुहम्मद हुसैन हयाकल ने लिखा कि उमर र.अ. का तनाव गरीबों और वंचितों की भलाई पर था। इसके अलावा, उमर र. अ. बानू हाशिम के साथ अपनी प्रतिष्ठा और संबंध को बेहतर बनाने के लिए, अली र.अ. की जनजाति, खैबर में अपने विवादित सम्पदा को बाद में पहुंचाया। उन्होंने अबू बक्र सिद्दिक र.अ. के फिदक की विवादित भूमि पर फैसले का पालन किया, इसे राज्य संपत्ति के रूप में जारी रखा। रिद्दा युद्धों में, विद्रोहियों और धर्मत्यागी जनजातियों के हजारों कैदियों को अभियानों के दौरान दास के रूप में ले जाया गया था। हज़रत उमर र.अ. ने कैदियों के लिए एक सामान्य माफी, और उनकी तत्काल मुक्ति का आदेश दिया। इसने उमर को बेदौइन जनजातियों के बीच काफी लोकप्रिय बना दिया। अपनी ओर से आवश्यक सार्वजनिक समर्थन के साथ, हज़रत उमर र.अ. ने रोमन मोर्चे पर सर्वोच्च कमान से खालिद इब्न वालिद को वापस बुलाने का साहसिक निर्णय लिया।

टिप्पणी

प्रसिद्ध लेखक माइकल एच. हार्ट ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक दि हन्ड्रेड The 100: A Ranking of the Most Influential Persons in History, (सौ दुनिया के सबसे प्रभावित करने वाले लोगो की सुचि में ५२वां स्थान दिया) में हज़रत उमर को शामिल किया है। हज़रत उमर के लिए पैगम्बर मुहम्मद ने कहा की अगर मेरे बाद कोई पैगम्बर होता तो वो उमर होते।

यह भी देखें

सन्दर्भ

  1. साँचा:cite web
  2. Haykal, 1944. Chapter 1.

बाहरी कडियां

साँचा:commons category