अवधी में कहावतें
(अवधी में कहावते से अनुप्रेषित)
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अवधी हिंदी क्षेत्र की एक उपभाषा है। यह उत्तर प्रदेश में अवधी क्षेत्र लखनऊ,बहराइच, हरदोई, सीतापुर, लखीमपुर, फैजाबाद, प्रतापगढ़, सुल्तानपुर, इलाहबाद तथा फतेहपुर, मिरजापुर, जौनपुर आदि कुछ अन्य जिलों में भी बोली जाती है। अवधी भाषा की कहावते उत्तर प्रदेश के अवध क्षेत्र के ग्रामीण लोक जीवन में अत्यधिक प्रचलित हैं।[१]
कहावत आम बोलचाल में इस्तेमाल होने वाले उस वाक्यांश को कहते हैं, जिसका सम्बन्ध किसी न किसी कहानी या पौराणिक कथाओ से जुड़ा हुआ होता है। कहीं कहीं इसे मुहावरा अथवा लोकोक्ति के रूप में भी जानते हैं। प्रायः ये कहावते एक भाषा के कहावतों को अन्य भाषाओं के द्वारा मूल या बदले हुये रूप में अपना भी लिया जाता है।
अवधी में कुछ कहावतें
- अधाधुन्ध दरबार माँ गदहा पँजीरी खाँय। (उदारता का नाजायज फायदा उठाने पर प्रयुक्त किया जाने वाला कहावत)
- कत्त्थर गुद्दर सोवैं। मरजाला बैठे रोवैं। (कथरी गुदड़ी ओढ़ने वाला आराम से सो रहा है लेकिन फैन्सी कपड़ों वाला जाड़े से ठिठुर रहा है।)
- काम नहीं कोउ का बनि जाय। काटी अँगुरी मूतत नाँय। (यदि किसी की कटी हुई उँगली इनके मूतने से ठीक हो जाए तो ये वह भी नहीं करेंगे।)
- करिया बाम्हन ग्वार चमार। इन दून्हों ते रह्यो होसियार।
- खरी बात जइसे मौसी का काजर।
- गगरी दाना। सुद्र उताना।
- घर माँ नाहीं दाने। अम्मा चलीं भुनाने।
- घातै घात चमरऊ पूछैं, मलिकौ पड़वा नीके है। (पड़वा मर रहा है। अगर मर गया हो चमार उसे खाल के लिये ले जायेगा।)
- जग जीतेव मोरी रानी। बरु ठाढ़ होय तो जानी।
- जस मतंग तस पादन घोड़ी। बिधना भली मिलाई जोड़ी।
- जबरा मारै, रोवन न देय।
- जाड़ जाय रुई कि जाड़ जाय दुई।
- जाड़ लाग, जाड़ लाग जड़नपुरी। बुढ़िया का हगास लागि बिपति परी।
- ठाढ़ा तिलक मधुरिया बानी। दगाबाज कै यहै निसानी।(जो बाहर से अच्छा बोलते हैं और अंदर बुरा सोचते हैं )
- त्रियाचरित्र न जानै कोय। खसम मारि कै सत्ती होय।
- दिये न बिधाता, लिखे न कपार।
- धन के पन्द्रा मकर पचीस। जाड़ा परै दिना चालीस।
- नोखे घर का बोकरा। खरु खाय न चोकरा।।
- नोखे गाँवैं ऊँट आवा। कोउ देखा कोऊ देखि न पावा।
- बहि बहि मरैं बैलवा, बाँधे खाँय तुरंग।
- बरसौ राम जगै दुनिया। खाय किसान मरै बनिया।
- बूढ़ सुआ राम राम थोरै पढ़िहैं।
- भरी जवानी माँझा ढील।
- लरिकन का हम छेड़तेन नाहीं, ज्वान लगैं सग भाई।
- बूढ़ेन का हम छोड़तेन नाहीं चहे ओढ़ैं सात रजाई।
- सूमी का धन अइसे जाय। जइसे कुंजर कैथा खाय। (कहते हैं कि हाथी समूचे कैथे के अन्दर का गूदा खाकर समूचे खोखले कैथे का मलत्याग करता है।)
- सोनरवा की ठुक ठुक, लोहरवा की धम्म।
- हिसकन हिसकन नौनिया हगासी।
- उठा बूढ़ा साँस ल्या, चरखा छोड़ा जांत ल्या। (यह कहावत तब कही जाती है जब इतनी व्यस्तता हो कि साँस लेने कि फुर्सत भी ना हो।)
- बाप पदहिन ना जाने, पूत शंख बजावे। (जब पुत्र किसी कार्य को पिता से अच्छा करने लगे तब इसका प्रयोग करते है)
- बाप न मारेन फड़की, बेटवा तीरनदास। (जब पुत्र किसी कार्य को पिता से अच्छा करने लगे तब इसका प्रयोग करते है)
- जहां जाये दूला रानी, उहाँ पड़े पाथर पानी। (यह कहावत ऐसे व्यक्ति के लिए प्रयोग की जाती है जिसके जाते ही कोई कार्य बिगड़ने लगता है।)
- खावा भात, उड़वा पांत। (भात=पकाया हुआ चावल; पांत=पंगत, यह कहावत उसके लिए प्रयोग की जाती है जो फक्कड़ी किस्म का आदमी हो/जो अपनी किसी चीज की चिंता ना करता हो।)
- तौवा की तेरी, खापडिया की मेरी। (तौवा=तवा; खापडिया=मिट्टी की खपड़ी, इसका अर्थ है की सब ख़राब वस्तुएं तुम्हारी और सारी अच्छी मेरी)
- सास मोर अन्हरी, ससुर मोर अन्हरा, जेहसे बियाही उहो चक्चोन्हरा, केकरे पे देई धेपारदार कजरा। (चक्चोन्हरा=जिसकी ऑंखें बार बार स्वतः ही बंद होती हो; धेपारदार= मोटा सा। यह कहावत तब प्रयोग की जाती है जब कोई अच्छी वस्तु किसी को देना चाहें पर कोई उसका हक़दार ना मिले।)
- मोर भुखिया मोर माई जाने, कठवत भर पिसान साने। (कठवत= आटा गूंथने का बर्तन; पिसान= आटा। बच्चे कि भूख केवल माँ ही समझ सकती है।)
- जैसे उदई वैसे भान, ना इनके चुनई ना उनके कान। (दो मूर्ख एक सा व्यवहार करते हैं।)
- पैइसा ना कौड़ी , बाजार जाएँ दौड़ी। (साधन हीन होने पर भी ख़याली पुलाव पकाना।)
- जेकरे पाँव ना फटी बेवाई , ऊ का जाने पीर पराई। (जिसको कभी दुःख ना हुआ हो वो किसी की पीड़ा क्या जाने।)
- गुरु गुड ही रह गयेन, चेला चीनी होई गयेन। (शिष्य गुरु से भी अधिक सफल हो गया।)
- सूप बोलै त बोलै, चलनी का बोलै जे मा बहत्तर छेद। (एक बुरे व्यक्ति द्वारा दूसरे बुरे व्यक्ति को दोषी ठहराना।)
- फूहर चली त नौ घर हाला
- मन मोर महुवा चित्त भुसैले
- पड़ी बुढ़िया पड़ी रहे चरख मरख बुझत रहे ( जो खुद कुछ काम नहीं करते बस बोलते रहते हैं )
इन्हें भी देखें
सन्दर्भ
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