संविदा निर्माण
साँचा:cleanup वह प्रत्येक वचन अथवा करार जो कानून द्वारा प्रवर्तनीय हो अथवा जिसका कानून द्वारा पालन कराया जा सके, संविदा (ठीका, अनुबन्ध, कान्ट्रैक्ट) कहलाता है। वर्तमान संविदा की विशेषता उसकी कानूनी मान्यता है।
करार की ऐतिहासिकता
वचनपालन, करार अथवा कौल के निर्वाह को सम्पूर्ण विश्व में और विशेषत: भारत में बड़ा महत्व दिया गया है। भारतीय इतिहास में वचनपालन के लिए पुत्र को वनवास और स्वयं मृत्यु का वरण करनेवाले दशरथ की गाथा लोकप्रसिद्ध है। राजस्थान का मध्यकालीन इतिहास इसी उज्वल परंपरा से ओतप्रोत है।
परंतु इस वचनपालन का आध्यात्मिक और नैतिक मूल्य रहा है, इसके पीछे कानून का हाथ नहीं था और न इसको कोई वैधानिक मान्यता प्राप्त थी। परन्तु धीरे धीरे व्यावसायिक सम्बन्धों में वचनपालन की और उसे कानूनी मान्यता देने की आवश्यकता का अनुभव भी जीवनमूल्यों एवं नैतिकता के ह्रास के साथ ही समाज ने किया और इसी कारण नैतिक तथा आध्यात्मिक दृष्टि से वचनपालन जहाँ गौण होता गया, वैधानिक मान्यताप्राप्त व्यावसायिक वचनों के पालन के महत्व को प्रमुखता प्राप्त होती गई।
व्यावसायिक और कानूनी दृष्टि से इस सम्बन्ध में रोम का कानूनी इतिहास रोचक है। वहाँ संविदा का प्राचीनतम स्वरूप (nexum) था। अपने मूल रूप में यह उधार वस्तुविक्रय से सम्बन्धित था। धीरे धीरे ऋण के लिये भी इसका प्रयोग होने लगा। इसकी कतिपय औपचारिकताएँ थीं जिनके बिना (nexum) की पूर्णता प्राप्त नहीं होती थी।
भारत में भी नारद और वृहस्पति के ग्रन्थों में वस्तुविक्रय, ऋण, साझेदारी और अभिकर्तृत्व (एजेंसी) के सम्बन्धों का उल्लेख है। किंतु वर्तमान संविदा का स्वरूप उससे भिन्न है, यद्यपि उसके विकास की कड़ी उनसे भी जोड़ी जा सकती है।
वर्तमान संविदा की विशेषता उसकी कानूनी मान्यता है। वह प्रत्येक वचन अथवा करार जो कानून द्वारा प्रवर्तनीय हो अथवा जिसका कानून द्वारा पालन कराया जा सके, संविदा है। प्राचीन काल में इस कानूनी मान्यता पर विशेष बल नहीं था बल्कि बल था उसकी औपचारिकाताओं में से यदि कोई औपचारिकता कम रह जाती थी तो संविदा पूर्ण नहीं होती थी।
भारत में संविदा
यद्यपि अपने विभिन्न रूपों में संविदा का प्रचलन समाज के व्यावसायिक सम्बन्धों में था परन्तु "संविदा" शब्द का अन्वेषण बहुत बाद में हुआ। संविदा शब्द बहुत व्यापक है। संविदा के ही अंग विक्रय, ऋण, बन्धक, निक्षेप (Bailment), साझेदारी, अभिकर्तृत्व (Agency), विवाह आदि भी हैं। परंतु अपने वर्तमान रूप में संविदा ने नया कानूनी अर्थ ग्रहण कर लिया है। भारतवर्ष में इसका अधिनियम सन् 1872 ई. में बना और संविदाओं का नियमन उसी भारतीय संविदा अधिनियम (Indian Contract Act 1872) द्वारा होता है। इसलिये भारतीय न्यायालय अब संविदा के मामले में इसी लिखित कानून का अनुसरण करने को बाध्य हैं। व्यवस्थाओं की व्याख्या के लिये उन्हें इसी अधिनियम का अध्ययन करके उपयुक्त अर्थ और मंतव्य निकालना चाहिए। भारतीय संविदा अधिनियम ब्रिटिश संविदा कानून पर आधारित है परन्तु ब्रिटिश संविदा अधिनियम की सहायता तभी ली जा सकती है जब या तो भारतीय संविदा अधिनियम किसी प्रश्न पर मौन हो अथवा उसकी व्यवस्था अस्पष्ट हो और ब्रिटिश कानून भारतीय अवस्था और सामाजिक स्थिति से असंगत न हो।
संविदा के आवश्यक तत्व
"विधि द्वारा प्रवर्तनीय करार संविदा है" अपने वर्तमान रूप में संविदा एक विधिक वचन या विधि द्वारा प्रवर्तनीय करार है। इसमें दो आवश्यक तत्व हैं -
(1) करार और
(2) विधि द्वारा उसे प्रभावशील बनाए जाने का गुण।
करार
जब कम से कम दो व्यक्ति किसी कार्य के करने अथवा उससे विरत रहने के सम्बन्ध में एकमत होते हैं तो उसे करार कहा जाता है। करार के लिये कम से कम दो पक्षों का होना आवश्यक है। यदि "अ" ने "ब" से प्रस्ताव किया कि "ब" "अ" का एक चित्र बना दे तो वह "ब" को इस कार्य हेतु पाँच सौ रूपए देगा। "अ" के द्वारा यह प्रस्ताव है। यदि "ब" यह स्वीकार कर ले कि पाँच सौर रूपए में वह "अ" के लिये उसका चित्र बना देगा तो यह एक ऐसा करार हुआ जो कानून द्वारा प्रवर्तनीय है और उसे प्रभावकारी बनाया जा सकता है। अर्थात् एक व्यक्ति अकेला ही कोई करार नहीं कर सकता है करार के लिये करार सम्बन्धी बातों पर उभय पक्ष की मानसिक रूप से एकमत (consensus ad idem) होना आवश्यक है। तात्पर्य यह है कि करार सम्बन्धी प्रत्येक बात के सम्बन्ध में दोनों पक्ष उसका एक ही अर्थ समझें। ऐसा न हो कि एक पक्ष एक अर्थ और दूसरा पक्ष दूसरा अर्थ समझे। "अ" के पास दो मोटर कारें हैं, एक फोर्ड और दूसरी शेवरलेट। वह अपनी फोर्ड कार पाँच हजार में बेचना चाहता है। उसने अपनी उस कार को बेचने का प्रस्ताव "ब" से किया। परंतु "ब" ने "शेवरलेट" कार समझकर उसे खरीदने की स्वीकृति प्रदान कर दी। यह करार नहीं होगा क्योंकि "अ" और "ब" में मोटरकार के सम्बन्ध में मानसिक एकात्मकता नहीं हुई। मोटरकार से "अ" ने फोर्ड मोटरकार और "ब" ने शेवरलेट कार समझी।
प्रस्ताव और उसके प्रकार
उपर्युक्त कथन से स्पष्ट है कि प्रस्ताव ही स्वीकृति के उपरान्त करार बनता है। प्रस्ताव विभिन्न प्रकार के होते हैं परन्तु साधारणत: उनका वर्गीकरण पाँच श्रेणियों में किया गया है :
1. विशिष्ट प्रस्ताव (specific offer), जब कोई प्रस्ताव निश्चित व्यक्ति या व्यक्तियों से किया जाता है, तब उसे विशिष्ट प्रस्ताव कहते हैं। चूँकि प्रस्ताव निश्चित व्यक्ति या व्यक्तियों से किया जाता है, अत: इसमें स्वीकार करनेवाला व्यक्ति, जिसे स्वीकर्ता कहा जाएगा, निर्दिष्ट होता है। इसमें स्वीकृति की सूचना स्वीकर्ता द्वारा प्रस्तावक को देना आवश्यक है।
2. सामान्य प्रस्ताव (जनरल ऑफर) वह प्रस्ताव है जो निश्चित व्यक्ति या व्यक्तियों से नहीं किया जाता बल्कि संसार का कोई व्यक्ति इसे स्वीकार कर सकता है। इसी लिये विशिष्ट प्रस्ताव की भाँति इसमें स्वीकृति की सूचना का प्रस्तावक को दिया जाना अनिवार्य नहीं होता। प्रस्ताव में प्रकटित और इच्छित कार्य को करना ही इस प्रस्ताव की स्वीकृति मानी गई है।
3. स्पष्ट प्रस्ताव (ऐक्सप्रेस आफर) वे प्रस्ताव है जो मौखिक या लिखित रूप में हृ परन्तु स्पष्टत: हृ किए जाएँ।
4. सांकेतिक प्रस्ताव (इंप्लाइड ऑफर) ये प्रस्ताव शब्दों द्वारा न होकर कार्य द्वारा किए जाते हैं। यात्रियों को एक स्थान से दूसरे स्थान को टिकट के बदले ले जाने का प्रस्ताव, रेलगाड़ी को स्टेशन पर आना ही है। यह सामान्य प्रस्ताव का भी उदारहण है क्योंकि इसका स्वीकर्ता पूर्वनिश्चित नहीं है।
5. अनवरत प्रस्ताव (Continuous offer) इस प्रस्ताव में निश्चित दर से 5000 मन गेहूँ की आपूर्ति का प्रस्ताव। इस प्रस्ताव की स्वीकृति के उपरान्त भी एक पक्ष तुरंत ही सम्पूर्ण गेहूँ खरीदने को या दूसरा पक्ष बेचने को बाध्य नहीं किया जा सकता।
स्वीकृति और उसके विभिन्न प्रकार
प्रस्ताव की ही भाँति और उसके अनुरूप स्वीकृति की कोई विशेष विधि या प्रणाली निर्धारित करता है, वहाँ स्वीकृति का उस विधि या प्रणाली निर्धारित करता है, वहाँ स्वीकृति का उस विधि या प्रणाली द्वारा स्वीकृति न हो तो प्रस्तावक को उसी प्रणाली द्वारा स्वीकृति देने पर बल देना चाहिए। परन्तु जहाँ स्वीकृति की किसी प्रणाली या विशिष्ट विधि का उल्लेख नहीं हो, वहाँ किसी युक्तियुक्त, संगत और उचित प्रणाली द्वारा स्वीकृति दी जा सकती है।
स्वीकृति भी स्पष्ट अर्थात् शब्दों द्वारा बोलकर हो सकती है अथवा सांकेतिक रूप में कार्य द्वारा। टिकट लेकर गंतव्य स्थान को जानेवाली रेलगाड़ी पर यात्री का बैठना ही कार्य द्वारा कम्पनी के प्रस्ताव की स्वीकृति है। केवल मानसिक स्वीकृति मात्र स्वीकृति नहीं समझी जा सकती। शब्दों में अथवा कार्य द्वारा उसकी अभिव्यक्ति भी आवश्यक है।
प्रस्ताव में निर्दिष्ट कार्यों का करना भी कतिपय (साधारणत: उपर्युक्त सामान्य) प्रस्तावों की स्वीकृति मानी जाती है। परन्तु यह आवश्यक है कि स्वीकर्ता इस कार्य को करने के पूर्व से ही प्रस्तावक की शर्ते जानता हो। यदि स्वीकर्ता प्रस्ताव की बिना जानकारी के ही वह कार्य करता है जो प्रस्ताव में निर्दिष्ट है, तो वह प्रस्ताव की स्वीकृति नहीं माना जा सकता। एक व्यक्ति गोरीदत्त ने अपने भतीजे की खोज के लिए अपने मुनीम लालमन को भेजा। लालमन के जाने के उपरान्त गौरीदत्त ने अपने भतीजे को खोज लानेवाले के लिए 501 रूपए पुरस्कार की घोषणा की। लालमन मुनीम गौरीदत्त के भतीजे को खोज लाया और पुरस्कार की माँग की। निर्णय यह हुआ कि चूँकि लालमन को लड़के की खोज के पूर्व पुरस्कार की शर्त की सूचना नहीं थी, न पुरस्कार प्राप्ति की बात ही ज्ञात थी, अत: खोए हुए लड़के को खोज लाने का लालमन का कार्य गौरीदत्त के प्रस्ताव की स्वीकृति नहीं माना जा सकता (लालमन शुक्ल बनाम गौरीदत्त)
प्रस्ताव से उत्पन्न लाभ को स्वीकार करना भी उपयुक्त दशाओं में प्रस्ताव की स्वीकृति समझी जाती है। वाराणसी से प्रयाग की बस में बैठकर जाना ही बस मालिक के प्रस्ताव की स्वीकृति है और स्वीकर्ता बस का किराया देने को बाध्य है।
स्वीकृति प्रस्ताव के कायम रहने की दशा में होनी चाहिए। यदि प्रस्ताव निष्प्रभाव हो चुका है या प्रस्तावक द्वारा खंडित किया या वापस लिया जा चुका है तो स्वीकृति भी निरर्थक और प्रभावहीन होगी।
प्रस्ताव और स्वीकृति का संवहन
प्रस्तावक की सूचना स्वीकर्ता को और प्रस्ताव की स्वीकृति की सूचना प्रस्तावक को मिलना आवश्यक है। प्रस्ताव की सूचना जब उस व्यक्ति को प्राप्त हो जाए जिसके प्रति प्रस्ताव किया जाता है तब प्रस्ताव का संवहन या संचार पूर्ण समझा है। "क" ने अपनी घड़ी 150) में "ख" को बेचने का प्रस्ताव पत्र द्वारा "ख" की प्रेषित किया। ज्योंही "क" का पत्र "ख" को प्राप्त होगा, "क" के प्रस्ताव का संवहन पूर्ण हो जाएगा। स्वीकृर्ता के लिये पृथक् पृथक् होता है। जब स्वीकर्ता अपनी स्वीकृति प्रस्तावक के पास इस प्रकार प्रेषित कर दे कि उसका वापस लेना स्वीकर्ता के वश में न रहे, तो प्रस्तावक के विरुद्ध स्वीकृति प्रस्तावक के पास पहुँच जाए। उपर्युक्त उदाहरण में "ख" द्वारा अपनी स्वीकृति का संवहन पूर्ण समझा जाएगा परन्तु स्वीकर्ता के विरुद्ध नहीं। स्वीकर्ता के विरुद्ध स्वीकृति के विरुद्ध स्वीकृति का संवहन तब पूर्ण होगा जब स्वीकति प्रस्तावक के पास पहुँच जाए। उपर्युक्त उदाहरण में "ख" द्वारा अपनी स्वीकृति का पत्र "क" के नाम डालते ही स्वीकृति की पाबंदी "क" नामक प्रस्तावक के विरुद्ध हो जाएगी परन्तु स्वीकर्ता "ख" के विरुद्ध नहीं। "ख" के विरुद्ध संवहन की पूर्णता तब होगी जब उसकी स्वीकृति का पत्र "क" को प्राप्त हो जाए।
डाक द्वारा सवहन का नियम और प्रस्ताव तथा स्वीकृति का खंडन
जब प्रस्तावक और स्वीकर्ता एक दूसरे के समक्ष उपस्थित हों तो संवहन में कोई पेचीदगी पैदा नहीं होती परन्तु जब दोनों दो स्थानों पर हों तो संवहन का माध्यम डाक : पत्र या तार : होता है। उपर्युक्त कथन से यह स्पष्ट है कि प्रस्ताव का पत्र प्रस्तावक द्वारा छोड़े जाते ही वह पूर्ण नहीं होता वरन् स्वीकर्ता के पास पहुँचन पर ही पूर्ण होता है। इससे यह भी निष्कर्ष निकलता है कि प्रस्तावक और स्वीकर्ता एक दूसरे के समक्ष उपस्थित हों तो संवहन में कोई पेचीदगी पैदा नहीं होती परन्तु जब तक स्वीकर्ता अपनी स्वीकृति का पत्र डाक में नहीं छोड़ देता क्योंकि तब स्वीकृति का वापस लिया जाना स्वीकर्ता के वश के बाहर हो जाता है। स्वीकर्ता द्वारा स्वीकृतिपत्र डाक में छोड़ते हर प्रस्ताव प्रस्तावक के विरुद्ध पूर्ण हो जाता है। ऊपर कहा जा चुका है कि स्वीकृति स्वीकर्ता के विरुद्ध तब पूर्ण होती है जब प्रस्तावक को प्राप्त हो जाए। प्रस्तावक को प्राप्त होने के पूर्व स्वीकर्ता अपनी स्वीकृतिपत्र डाकखाने में छोड़े जाते हो स्वीकर्ता के विरुद्ध भी पूर्ण हो जाता है। स्वीकृतापत्र देर में पहुँचने या रास्ते में खो जाने पर भी प्रभावकारी रहता है क्योंकि ऐसा माना गया है कि डाक विभाग की असावधानी या भूल का कोई प्रभाव संविदा के पक्षों पर पड़ना न्यायसंगत नहीं है। परन्तु यदि संवहन के लिये पत्र डाक में न डालकर पोस्टमैन को दे दिया जाए तो यह पर्याप्त संवहन नहीं क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति के पत्र को लेकर डाक में छोड़ना पोस्टमैन के कर्तव्यों में सम्मिलित नहीं है।
करार को कानून द्वारा प्रवर्तनीय बनाए जाने का गुण
भारतीय संविदा अधिनियम 1872 ई. की धारा 10 के अनुसार ऐसे सभी करार संविदा माने गए हैं जो
(1) करार करने योग्य पक्षों की
(2) स्वतंत्र सहमति से किए जाए,
(3) जिनका प्रतिफल और उद्देश्य वैध हो और जो
(4) उक्त अधिनियम द्वारा निसत्व (Void, प्रभावहीन) न घोषित किए गए हों। इसी धारा में यह भी स्पष्ट कर दिया गया है कि उपर्युक्त परिभाषा का प्रभाव ऐसे किसी कानून पर नहीं पड़ेगा,
(5) जिसके द्वारा किसी संविदा का लिखित, या पंजीकृत साक्षियों की गवाही के साथ होना आवश्यक है।
योग्य पक्ष
ऐसे सभी व्यक्ति संविदा करने योग्य माने जाते हैं जो व्यस्क हों, स्वस्थ मस्तिष्कवाले हों और किसी कानून द्वारा संविदा करने के अयोग्य न ठहराए गए हों। फलस्वरूप
(1) अवयस्क,
(2) विकृत मस्तिष्कवाले व्यक्ति या उन्मत्त (Lunatic), जड़बुद्धि (Idiot) तथा नशे में चूर रहनेवाले,
(3) और ऐसे व्यक्ति जो कानून द्वारा संविदा करने के अयोग्य ठहराए गए हों, यथा विदेशी शत्रु, विदेशी सम्राट् अथवा उनके प्रतिनिधि, देश के शत्रु, अपराधी आदि संविदा नहीं कर सकते।
अवस्यक व्यक्ति स्वतंत्र बुद्धि से अपने लाभ हानि का निर्णय नहीं कर सकता। अत: वह संविदा करने योग्य नहीं माना गया है। विकृत मस्तिक वाले व्यक्तियों में अगर विकृति अस्थायी हो हृ यानी कभी मस्तिष्क वाले व्यक्तियों में अगर विकृति अस्थायी हो हृ यानी कभी मस्तिष्क विकृत और कभी स्वस्थ रहता हो हृ तो ऐसे व्यक्ति विकृतिकाल में तो नहीं परन्तु मस्तिष्क की स्वस्थता के काल में संविदा का योग्य पक्ष हो सकते हैं1 अपराधी का दंडभोग के समय संविदा करने का अधिकार निलम्बित हो जाता है परन्तु दंडभोग या क्षमाप्राप्ति के पश्चात् उसे संविदा करने की क्षमता पुन: प्राप्त हो जाती है। दिवालिया घोषित व्यक्ति भी संविदा करने की योग्यता से वंचित माना जाता है।
स्वतंत्र सहमति
संविदा के पक्षों की सहमति का स्वतंत्र होना संविदा की एक प्रमुख आवश्यकता है। यदि सहमति स्वतंत्र नहीं है तो संविदा उससे प्रभावित होगी। सहमति उस दशा में स्वतंत्र मानी जाती है जब यह
1. बलप्रवर्तन या त्रास (Coercion),
2. अवांछित प्रभाव (Undue Infuence),
3. छलकपट (Fraud),
4. भ्रांत कथन, या भ्रांति द्वारा प्रभावित नहीं हुई हो और न प्राप्त की गई हो।
बलप्रवर्तन या त्रास
बलप्रवर्तन या त्रास की परिभाषा भारतीय संविदा अधिनियम की धारा में दी गई है। उसके अनुसार बलप्रवर्तन या त्रास के चार रूप है :
(१) भारतीय दंड विधान द्वारा वर्जित और दंडनीय कार्य करना या
(२) करने की धमकी देना, चाहे उस स्थान पर जहाँ यह कार्य किया जाए भारतीय दंड विधान लागू हो या नहीं,
(३) किसी भी व्यक्ति की सम्पत्ति अवैध रूप से रोक रखना; अथवा
(४) रोक रखने की धमकी देना। इस बलप्रवर्तन या त्रास का उद्देश्य किसी व्यक्ति को संविदा का पक्ष बनाना ही होना चाहिए।
अवांछित प्रभाव
अवांछित प्रभाव की परिभाषा संविदा अधिनियम की धारा 16 में दी गई है। उसके अनुसार वह संविदा अवांछित प्रभाव द्वारा प्रेरित कही जाती है जिसके पक्षों के सम्बन्ध ऐसे हों कि एक पक्ष दूसरे पक्ष की इच्छा से अपनी उस विशिष्ट स्थिति का प्रयोग करे। माता पिता और बच्चे, अभिभावक और पाल्य (वार्ड), वकील ओर मुवक्किल, डाक्टर और रोगी, गुरु और शिष्य आदि के सम्बन्ध ऐसे ही होते हैं जिनमें प्रथम पक्ष दूसरे की इच्छाओं को अपने विशिष्ट सम्बन्ध के कारण प्रेरित करता है। अवांछित प्रभाव सिद्ध करने के लिए यह भी सिद्ध करना आवश्यक है कि वस्तुत: विशिष्ट स्थितिवाले पक्ष के दूसरे पक्ष पर अपनी विशेष स्थिति का प्रयोग अपने अनुचित लाभ के लिये किया। यदि यह बात सिद्ध नहीं होती तो केवल विशिष्ट स्थिति के ही कारण कोई संविदा अवांछित प्रभाव द्वारा प्रभावित या परित्याज्य नहीं समझी जाएगी।
छलकपट
यह संविदा अधिनियम की धारा 17 में वर्णित है। उसके अनुसार संविदा के किसी पक्ष द्वारा या उसकी साजिश से या उसके अभिकर्ता (agent) द्वारा दूसरे पक्ष या उसके अभिकर्ता को धोखा देने या छलने या संविदा से सम्मिलित होने के लिये प्रेरित करने के हेतु निम्नांकित कार्य छलकपट कहलाएँगे :
क) किसी असत्य बात को, जिसकी सत्यता में उसे विश्वास न हो, तथ्य बतलाना,
ख) ऐसे तथ्य को छिपाना जिसका उसे ज्ञान या विश्वास न हो;
ग) ऐसा वचन देना जिसे पूरा करने की इच्छा न हो;
घ) ऐसा कार्य करना या उससे विरत होना जिसे कानून विशेष रूप से छलकपट घोषित करता हो;
ङ) धोखा देने लायक अन्य कार्य करना।
भ्रांति
करार के सम्बनध में विचार करते हुए यह कहा गया है कि उभय पक्ष के बीच मानसिक मतैक्य का होना आवश्यक है। भ्रांति इसी से सम्बन्धित दोष है। इसमें एक पक्ष एक वस्तु या बात और दूसरा पक्ष दूसरी वस्तु या बात समझता है। फलस्वरूप ऊपरी ढंग से देखने में तो संविदा का निर्माण प्रतीत होता है परन्तु भ्रांति के कारण वस्तुत: कोई संविदा होती नहीं है। ये भ्रांतियाँ कई प्रकार की होतीं हैं। विषयसामग्री के सम्बन्ध में भ्रांति का उदाहरण पूर्वप्रसंग में शेवरलेट और फोर्ड मोटर कारों के द्वारा दिया गया है। इसी प्रकार संविदा के पक्ष की पहचान में भी भ्रांति सम्भव है। "क" ने जिसे "ख" समझकर संविदा की यदि वह वस्तुत: "ख" नहीं वरन् "ग" था तो यह पक्ष की पहचान की भ्रांति है। संविदा की प्रकृति या अर्थ सम्बन्धी भी भ्रांति हो सकती है। अगर किसी बाद का एक पक्ष बाद में अवसर लेने का आवेदन पत्र बताकर किसी सन्धिपत्र पर दूसरे पक्ष का हस्ताक्षर करा लेता है तो दूसरे पक्ष को संविदा के रूप या प्रकृति के विषय में भ्रांति होती है। ऐसी दशा में हस्ताक्षर बनानेवाले का मस्तिष्क उसके हस्ताक्षर के साथ नहीं है।
प्रतिफल एवं उद्देश्य वैध होना चाहिए
प्रसंविदा के लिये प्रतिफल एक आवश्यक तत्व है। बिना प्रतिफल के कोई प्रसंविदा नहीं हो सकती; और यदि वह हो भी तो नि:सत्व या अवैध होती है। प्रतिफल भी वैध होना चाहिए। उदाहरण स्वरूप "अ", "ब" को "स" की हत्या के लिए 5000 रु. देता है और "ब" हत्या के लिए वचन देता है। यहाँ यह संविदा नि:सत्व है क्योंकि इसका प्रतिफल हत्या कानून द्वारा वर्जित है। इस प्रकार निम्नलिखित प्रकार के प्रतिफल अवैध होते हैं -
1. ऐसे प्रतिफल जो कानून वर्जित हैं। यदि कोई प्रतिफल स्पष्टया या सांकेतिक रूप से कानून द्वारा वर्जित हो तो उसके आधार पर निर्मित प्रसंविदा नि:सत्य होती है। यह उपर्युक्त उदाहरण से स्पष्ट हो जाएगा।
2. यदि कोई ऐसा प्रतिफल हो जिससे किसी अधिनियम की कोई व्यवस्था भंग होती हो या निष्फल होती हो तो वह प्रतिफल अवैध माना जाएगा।
3. जो प्रतिफल कपटपूर्ण होते हैं, वे अवैध समझे जाते हैं।
4. वह प्रतिफल जिसके द्वारा किसी व्यक्ति के शरीर या सम्पत्ति को हानि पहुँचती हो अवैध होता है। उदाहरण के लिये अ एक समाचारपत्र के सम्पादक को पाँच सौ रुपया देने का वचन देता है यदि सम्पादक ब के सम्बन्ध में अपमानजनक विवरण छापे। यहाँ प्रतिफल अवैध है क्योंकि इससे ब की प्रतिष्ठा पर आघात पहुँचता है।
5. ऐसे प्रतिफल जो अनैतिक होते हैं, अवैध हैं।
6. लोकनीति के विरुद्ध प्रतिफल अवैध होते हैं, जैसे शत्रु के साथ व्यापार करना। लोकसेवा को हानि पहुँचाने की प्रवृत्ति रखनेवाली संविदा, दंडनीय अपराधों से सम्बन्धित मुकदमों का गला घोटनेवाली संविदा नि:सत्व होती है। वैधानिक कार्रवाई का दुरुपयोग करने की प्रवृत्ति रखनेवाली संविदा, ऐसी संविदा जौ नैतिकता के विरुद्ध हो, या व्यापारनिरोधक संविदा या किसी जो नैतिकता के विरुद्ध हो, या व्यापारनिरोधक संविदा या किसी व्यवस्क व्यक्ति को शादी करने से रोकने के लिए संविदा, इत्यादि भी लोकनीति के विरुद्ध एवं नि:सत्व होतीं हैं।
उद्देश्य एवं प्रतिफल में से एक का भी अवैध होना संविदा को नि:सत्व कर देता है। यदि संविदा का उद्देश्य अंशत: अवैध हो तब भी संविदा नि:सत्व हो जाती है, यदि उसके अवैध अंश को वैध अंश से पृथक् न किया जा सके। यदि प्रतिफल या उद्देश्य का अवैध अंश वैध अंश से अलग किया जा सके तो वैध अंश प्रवर्तनीय होगा और अवैध अंश नि:सत्व होगा। जैसे "ब" ने "अ" को एक प्रतिज्ञापात्र द्वारा 2000 रुपए देने का वचन दिया जिनमें से 1500 रुपए पुराना ऋण था और 500 रुपए जुए में हारी रकम थी। इसमें वैध भाग का अवैध भाग से पृथक् किया जा सकता है; अतएव यह प्रतिज्ञापत्र 1500 रुपए के लिये मान्य होगा किन्तु 500) के लिये नि:सत्व होगा।
नि:सत्व घोषित न होना
भारतीय संविदा अधिनियम के अन्तर्गत नि:सत्व घोषित करार कानून द्वारा प्रवर्तनीय नहीं हो सकते, यद्यपि उसमें संविदा के अन्य तत्व पूर्णत: विद्यमान भी हों। इस कोटि में निम्नांकित करार आते हैं :
१) त्रुटि या भ्रांति द्वारा प्रभावित करार;
2. अवयस्क के साथ किया गया करार;
3. प्रतिफलविहीन करार;
4. व्यस्क का विवाह रोकनेवाला संविदा करार;
5. व्यापारनिरोधक करार;
6. वैध कार्रवाई को रोकनेवाला करार;
7. अनिश्चित करार;
8. असंभव कार्यो को करने के लिये किया गया करार;
9. पण विषयक (wagery) करार;
10. असम्भव घटनाओं के घटित होने पर संभावित करार;
11. अवैध प्रतिफल या उद्देश्यवाले करार।
करार का लिखित, पंजीकृत एवं साक्षियों के समक्ष होना
सभी करार और संविदाओं के लिये लिखित, पंजीकृत और गवाहों की गवाही से युक्त होना आवश्यक नहीं है परन्तु ऐसी संविदा अन्य सब गुणों के रहते हुए भी इन औपचारिकताओं के अभाव के कारण मान्य नहीं होती।
सारांश
उपर्युक्त वर्णन से संविदा-निर्माण के आवश्यक तत्वों का सार निम्नलिखित प्रतीत होता है :
1. कम से कम दो पक्षों का होना;
2. प्रस्ताव और उसकी स्वीकृति;
3. उभय पक्षों की मानसिक एकात्मकता;
4. उभय पक्ष के बीच वैध संविदा निर्माण का मतंव्य;
5. उभय पक्षों की अर्हता;
6. उनकी स्वतंत्र सहमति;
7. वैध प्रतिफल;
8. वैध उद्देश्य;
9. करार का भारतीय संविदा अधिनियम द्वारा नि:सत्व न घोषित होना;
10. आवश्यकतानुसार उसका लिखित, पंजीकृत एवं साक्षीयुक्त होना।
इन्हें भी देखें
बाहरी कड़ियाँ
- संविदा प्रविधि (कान्ट्रैक्ट ला)
- प्रस्ताव, स्वीकृति, प्रतिफल, अनुबन्ध और कॉन्ट्रेक्ट (तीसरा खम्भा)
- Behavioral Contracting in the Classroom
- Contract Law Lessons & Materials by Max Young
- Cornell Law School contracts: an overview
- Principles of European Contract Law
- United Nations Convention on Contracts for the International Sale of Goods, Vienna, 11 April 1980
- Principles of European Contract Law
- Contract Law Cases Contract Law Cases, On UK Law
- United Nations Convention on Contracts for the International Sale of Goods, Vienna, 11 अप्रैल 1980